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रात को सात बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-ससुर के चरणो पर सिर झुकाकर आशीर्वाद लिया, विश्वम्भर रो रहा था, उसे गले लगाकर प्यार किया और मोटर पर बैठी। रतन स्टेशन तक पहुँचाने आयी थी।

मोटर चली तो जालपा ने कहा——बहन, कलकत्ता तो बहुत बड़ा शहर होगा। वहां कैसे पता चलेगा?

रतन——पहले 'प्रजा-मित्र' के कार्यालय में जाना! वहां पता चल जायगा। गोपी बाबू तो है ही।

जालपा——ठहरूंगी कहाँ ?

रतन——धर्मशाले हैं। नहीं तो होटल में ठहर जाना। देखो, रुपये की जरूरत पड़े, तो मुझे तार देना; कोई-न-कोई इन्तजाम करके भेजूंगी। बाबूजी आ जायें, तो मेरा बड़ा उपकार हो। मणिभूषण मुझे तबाह कर देगा।

जालपा——होटल वाले बदमाश तो न होंगे?

रतन——कोई जरा भी शरारत करे, तो ठोकर मारना। बस, कुछ पूछना मत। ठोकर जमाकर तब बात करना। (कमर से एक छुरी निकालकर) इसे अपने पास रख लो। कमर में छिपाये रखना। मैं जब कभी बाहर निकलती हूं, तो इसे अपने पास रख लेती हूँ, इससे दिल बड़ा मजबूत रहता है। जो मर्द किसी स्त्री को छेड़ता है, उसे समझ लो पल्ले सिरे का कायर, नीच और लम्पट है। तुम्हारी छुरी की चमक और तुम्हारे तेवर देखकर ही उसकी रूह फ़ना हो जायेगी। सीधा दुम दबाकर भागेगा; लेकिन अगर ऐसा मौका आ ही पड़े जब तुम्हें छुरी से काम लेने के लिए मजबूर हो जाना पड़े, तोजरा भी मत झिझकना। छुरी लेकर पिल पड़ना। इसकी बिलकुल फ़िक्र मत करना, कि क्या होगा, क्या न होगा। जो कुछ होना होगा, हो जायगा।

जालपा ने छुरी ले ली; पर कुछ बोली नहीं। उसका दिल भारी हो रहा था। इतनी बातें सोचने और पूछने की थीं, कि उनके विचार से ही उसका दिल बैठा जाता था।

स्टेशन आ गया। कुलियों ने असबाब उतारा। गोपी टिकट लाया। जालपा पत्थर की मूर्ति की भांति प्लेटफार्म पर खड़ी रही, मानो चेतना-

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