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हिचकिचाये ! अब एक भी न बचेगा! किसने कर्म किया किस ने नहीं किया, इसका हाल देव जाने; पर मारे सब जायेंगे। घर से भी सरकारी रुपया खाकर भागा था। हमें धोखा हुआ।

जग्गो ने मीठे तिरस्कार से देखकर कहा-अपनी नेकी-बदी अपने साथ है। मतलबी तो संसार है, फिर कौन किसके लिए मरता है।

देवीदीन ने तीव्र स्वर में कहा-अपने मतलब के लिए जो दूसरों का गला काटे उसको जहर दे देना भी पाप नहीं है।

सहसा दो प्राणी आकर खड़े हो गये। एक गोरा, खूबसूरत लड़का था, जिसकी उम्र पन्द्रह-सोलह से ज्यादा न थी। दूसरा अधेड़ था और सूरत से चपरासी मालूम होता था।

देवीदीन ने पूछा- किसे खोजते हो? चपरासी ने कहा-तुम्हारा ही नाम देवीदीन है न ? मैं 'प्रजा-मित्र' के दफ्तर से आया हूँ। यह बाबू , उन्हीं रमानाथ के भाई हैं, जिन्हें शतरंज का इनाम मिला था। यह उन्हीं की खोज में दफ्तर गये थे। सम्पादकजी ने तुम्हारे पास भेज दिया। तो मैं जाऊँ न ?

यह कहता हुआ वह चला गया। देवीदीन ने गोपी को सिर से पाँव तक देखा। आकृति रमा से मिलती थी। बोला-आओ बेटा, बैठो। कब आये घर से?

गोपी ने एक खटिक की दूकान पर बैठना शान के खिलाफ समझा। खड़ा सड़ा बोला-आज ही तो आया हूँ। भाभी साथ हैं। धर्मशाले में ठहरा हुआ हूँ।

देवीदीन ने खड़े होकर कहा-जाकर बहू को यहीं लाओ न ! ऊपर तो रमा बाबू का कमरा है ही, आराम से रहो। धर्मशाले में क्यों रहोगे ? नहीं, चलो, मैं भी चलता हूँ। यहाँ सब तरह का आराम है।

उसने जग्गों को यह खबर सुनायी और ऊपर झाड़ू लगाने को कहकर गोपी के साथ धर्मशाले चल दिया। बुढ़िया ने तुरन्त ऊपर झाडू लगायी, हलवाई की दुकान से मिठाई और दही लायी। सुराही में पानी भरकर रख दिया। फिर अपना हाथ-मुंह धोया, एक रंगीन साड़ी निकाली, गहने पहने और बन-ठनकर बहू की राह देने लगी।

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