चले गये थे और आज लौटे हो। मैं इतने आदमियों का खून अपनी गर्दन पर नहीं लेना चाहती। तुम अदालत में साफ़-साफ़ कह दो, कि मैंने पुलिस के चकमे में आकर गवाही दी थी, मेरा मुआमले से कोई सम्बन्ध नहीं है।
रमा मे चिन्तित होकर कहा——जब से तुम्हारा खत मिला तभी से मैं इस प्रश्न पर विचार कर रहा हूँ; लेकिन समझ में नहीं आता क्या करूं। एक बात कहकर मुकर जाने का साहस मुझमें नहीं है।
'बयान तो बदलना ही पड़ेगा।'
'आखिर कैसे?'
'मुश्किल क्या है? जब तुम्हें मालुम हो गया कि म्युनिसिपलिटी तुम्हारे ऊपर कोई मुकदमा नहीं चला सकती तो फिर किस बात का डर?'
'डर न हो, झेंप भी तो कोई चीज है। जिस' मुंह से एक बात कही, उसी मुँह से मुकर जाऊँ, यह तो मुझसे न होगा। फिर, मुझे कोई अच्छी जगह मिल आयगी। आराम से जिन्दगी बसर होगी। मुझमें गली-गली ठोकर खाने का बूता नहीं है।'
जालपा ने कोई जवाब न दिया। वह सोच रही थी, आदमी में स्वार्थ की मात्रा कितनी अधिक होती है।
रमा ने फिर धृष्टता से कहा——और कुछ मेरी हो गवाही पर तो सारा फैसला नहीं हुआ जाता ? मैं बदल भी जाऊँ तो पुलिस कोई दूसरा आदमी खड़ा कर देगी। अपराधियों की जान तो किसी तरह नहीं बच सकती। हाँ, मैं मुफ्त में मारा जाऊँगा।
जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा——कैसी बेशर्मी की बातें करते हो जी ? क्या तुम इतने गये-बीते हो कि अपनी रोटियो के लिए दूसरों का गला काटो ? मैं इसे नहीं सह सकती। मुझे मजदूरी करना, भूखी मर जाना मंजूर है। बड़ी-से-बड़ी विपत्ति जो संसार में है, यह सिर पर ले सकती हैं; लेकिन किसी का अनमल करके स्वर्ग का राज भी नहीं ले सकती।
रमा इस प्रादर्शवाद' से चिढ़कर बोला——तो क्या तुम चाहती हो कि मैं यहाँ कुलीगीरी करूं?
जालपा——नहीं, मैं यह नहीं चाहती; लेकिन कुलीगीरी भी करनी पड़ें, तो बह खुन से तर रोटियां खाने से कहीं बढ़कर है।