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देखकर उसके हाथ में खुजली होने लगती थी। खुद चाहे दिन भर सैरसपाटे किया करे, मगर क्या मजाल कि भाई कहीं घूमने निकल जायें। दयानाथ खुद लड़कों को कभी न मारते। अक्सर मिलता, तो उनके साथ खेलते थे। उन्हें कनकौवे उड़ाते देखकर उनकी बाल-प्रकृति सजग हो जाती थी, दो-चार पेंच लड़ा देते। बच्चों के साथ कभी गुल्ली-डंडा भी खेलते। इसलिये लड़के जितना रमा से डरते उतना ही पिता से प्रेम करते थे।

रमा को देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे छिपा दिया और पढ़ने लगे। सिर झुकाये चपत को प्रतीक्षा कर रहे थे पर रमानाथ ने चपत नहीं लगायी। मोड़े पर बैठकर गोपीनाथ से बोले-तुमने भांग की दूकान देखी है न, नुक्कड़ पर ?

गोपीनाथ प्रसन्न होकर बोला- हां, देखी क्यों नहीं ?

'जाकर चार पैसे का माजूम ले लो, दौड़े हुए आना ! हाँ ! हलवाई की दूकान से आधा सेर मिठाई भी लेते आना ! यह रूपया लो!' कोई पन्द्रह मिनट में रमा ये दोनों चीजें ले, जालपा के कमरे की ओर चला।

रात के दस बज गये थे। जालपा खुली छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चांदनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुस्बद, और वृक्ष स्वपन-चित्रों से लगते थे। जालपा को आंखें चन्द्रमा की ओर लगी थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चन्द्रमा को ओर उड़ी जा रही हूँ। उसे अपनी नाक में खुश्की, आँखों में जलन और सिर में चक्कर मालूम हो रहा था | कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गई, रोने लगी। एक क्षण में सहेलियों की याद आ गई, हंसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली लिये, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर बैठ गया।

जालपा ने उठकर पूछा-पोटली में क्या है ?

रमा०-बुझ जाओ तो जानें।

जालपा-हँसी का गोलगप्पा है ! (कह कर हँसने लगी।)

रमा० गलत।

ग़बन
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