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उसे किसी बात की भी सुध-बुध न रही। उसे इस भांति सतक रहना चाहिए था, मानो दुश्मनों ने उसे घेर रखा हो; पर उसने सब मणिभूषण पर छोड़ दिया। और उसी मणिभूषण ने धीरे-धीरे उसकी सारी सम्पत्ति अपहरण कर ली, ऐसे-ऐसे षड्यन्त्र रचे कि सरला रतन को उसके कपट व्यवहार का आभास तक न हुआ ! फन्दा अब खूब कस गया, तो उसने एक दिन आकर कहा-आज बँगला खाली करना होगा। मैंने इसे बेच दिया है।

रतन ने जरा तेज होकर कहा——मैंने तो तुमसे कहा था, कि मैं अभी बंगला न बेचूगीं।

मणिभूषण ने विनय का आवरण उतार फेंका और त्योरी चढ़ाकर बोला——आपमें बातें भूल जाने की बुरी आदत है। इसी कमरे में मैंने आपसे जिक्र किया था और आपने हामी भरी थी। जब मैंने बेच दिया तो आप यह स्वांग खड़ा करती हैं। बँगला आज खाली करना होगा और आपको मेरे साथ चलना होगा।

'मैं अभी यहीं रहना चाहती हूँ।'

'मैं आपको यहाँ न रहने दूंगा।'

'मैं तुम्हारी लौंडी नहीं हूँ।'

'आपकी रक्षा का भार मेरे ऊपर है। अपने कुल की मर्यादा-रक्षा के लिए मैं आपको अपने साथ ले जाऊंगा।'

रतन ने ओठ चबाकर कहा——मैं अपने मर्यादा की रक्षा आप कर सकती हूँ। तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। मेरी मर्जी के बगैर तुम यहाँ की कोई चीज़ नहीं बेच सकते।

'मणिभूषण ने वज्र-सा मारा——आपका इस घर पर और चाचाजी की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं। वह मेरी सम्पत्ति है। आप मुझसे केवल गुजारे का सवाल कर सकती हैं।

रतन ने विस्मित होकर कहा——तुम कुछ भंग तो नहीं खा गये हो ?

मणिभूषण ने कठोर स्वर में कहा——मैं इतनी भंग नहीं खाता कि बे-सिर-पैर की बातें करने लगूँ। आप तो पढ़ी-लिखी हैं, एक बड़े वकील की धर्मपत्नी थीं। कानून की बहुत सी बातें जानती होंगी। सम्मिलित परिवार में विधवा को अपने पुरुष की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। चाचाजी

                                         

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