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था। परदा ढंँका रह गया। मैंने दिनेश की माँ से कहा——मैं यहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ती हूँ। अपना घर मुंगेर बतलाया। बच्चो के लिए मिठाई ले गयी थी। हमदर्द का पार्ट खेलने गयी थी। और मेरा खयाल है कि मैंने खूब खेला! दोनों औरतें बेचारी रोने लगीं। मैं भी जब्त न कर सकी। उनसे कभी —कभी मिलते रहने का वादा किया। जालपा इसी बीच में गंगा-जल लिये पहुँची। मैंने दिनेश की मां से बंगला में पूछा——क्या यह कहारिन है, उसने कहा, नहीं, यह भी तुम्हारी तरह हम लोगों के दुःख में शरीक होने आ गई हैं। यहाँ इनके शौहर किसी दफ्तर में नौकर हैं। और तो कुछ मालूम नहीं। रोज सबेरे आ जाती है, और बच्चों को खेलाने ले जाती है। मैं अपने हाथ से गंगाजल लाया करती थी। मुझे रोक दिया और खुद लाती है। हमें तो इन्होंने जीवन-दान दिया। कोई आगे-पीछे न था। बच्चे दाने-दाने को तरसते थे ! जब से यह आ गयी है, हमें कोई कष्ट नहीं है। न जाने किस शुभ कर्म का यह वरदान हमें मिला है।

उस घर के सामने ही एक छोटा-सा पार्क है। मुहल्ले भर के बच्चे वहीं खेला करते हैं। शाम हो गयी थी। जालपा देवी ने दोनों बच्चों को साथ लिया और पार्क की तरफ चली। मैं जो मिठाई ले गयी थी, उसमें से बूढ़ी ने एक-एक मिठाई दोनों बच्चों को दी थी। दोनों कुद-कूदकर नाचने लगे। बच्ची की इस खुशी पर मुझे रोना आ गया। दोनों मिठाइयाँ खाते हुए जालपा के साथ हो लिये। जब पार्क में दोनों बच्चे खेलने लगे, तब जालपा से मेरी बातें होने लगी।'

रमा ने कुर्सी और करीब खींच ली, और आगे को झुक गया। बोला——तुमने किस तरह बातचीत शुरू की ?

जोहरा—— कह तो रही हूँ। मैंने पूछा——जालपा देवी, तुम कहाँ रहती हो ? घर की दोनों औरतों से तुम्हारी बडा़ई सुनकर तुम्हारे ऊपर आशिक हो गयी हूँ।

रमा॰——यही लफ्ज़ कहा था तुमने !

जोहरा——हाँ, जरा मजाक करने की सूझी। मेरी तरफ ताज्जुब से देखकर बोली——तुम तो बंगालिन नहीं मालूम होती। इतनी साफ़ हिन्दी कोई बंगालिन नहीं बोलती। मैंने कहा——मैं मुंगेर की रहनेवाली हूँ और

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