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इसी तरह वह बार-बार टालती रही;लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा। आखिर उसके मुंह से बात निकाल ही ली।

रमा ने कहा-यह नहीं, सब कुछ कहना पड़ेगा। जोहरा-अब आधी रात तक की कथा कहाँ तक सुनाऊँ। घण्टों लग जायेंगे। जब मैं बहुत पीछे पड़ी, तो उन्होंने आखिर में कहा-मैं उसी मुखबिर की बदनसीब औरत हूँ, जिसने इन कैदियों पर आफत ढाई है। यह कहते कहते वह रो पड़ी। फिर जरा आवाज को संभालकर बोली- हम लोग इलाहाबाद के रहनेवाले हैं। एक ऐसी बात हुई, कि इन्हें वहाँ से भागना पड़ा। किसी से कुछ कहा न सुना, भाग आये। कई महीनों में पता चला, कि वह यहाँ हैं।

रमा ने कहा- इसका भी किस्सा है। तुमसे बताऊँगा कभी, जालपा: के सिवा और किसी को यह न सुझती।

जोहरा बोली-यह सब मैंने दूसरे दिन जान लिया। अब मैं तुम्हारे रग-रग से वाकिफ़ हो गयी। जालपा मेरी सहेली है। शायद ही अपनी कोई बात उन्होंने मुझसे छिपाई हो।

कहने लगी-जोहरा, मैं बड़ी मुसीबत में फँसी हुई हूँ। एक तरफ़ तो एक आदमी की जान और कई खानदानों की तबाही है, दूसरी तरफ़ अपनी तबाही है। मैं चाहूँ, तो आज इन सबों की जान बचा सकती हूँ। मैं अदालत को ऐसा सबूत दे सकती हूँ, कि फिर मुखबिर की शहादत की कोई हकीकत ही न रह जायेगी; पर मुखबिर को सजा से नहीं बचा सकती। बहन, इस दुविधे में मैं पड़ी नरक का कष्ट झेल रही हूँ। न यही होता है कि इन लोगों को मरने दूँ, और न यही हो सकता है, कि रमा को आग में झोंक दूं। यह कहकर वह रो पड़ी और बोली बहन मैं खुद मर जाऊँगी; पर उनका अनिष्ट मुझसे न होगा। न्याय पर उन्हें भेंट नहीं कर सकती। अभी देखती हूँ, क्या फैसला होता है। नहीं कह सकती, उस वक्त मैं क्या कर बैठूँ। शायद वहीं। हाईकोर्ट में सारा किस्सा कह सुनाऊँ, शायद उसी दिन जहर खाकर सो रहूँ।

इतने में देवीदीन का घर आ गया। हम दोनों विदा हुईं। जालपा ने मुझसे बहुत इसरार किया, कि कल इसी वक्त फिर आना। दिन-भर तो उन्हें बात करने की फुरसत नहीं रहती | बस यही शाम को मौका मिलता

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