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उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे खड़ा हो गया। जालपा ने बिस्तरबन्द से बिस्तर को बांधा और फिर अपने सन्दूक को साफ करने लगी; मगर अब उसमें वह पहले-ली तत्परता न थी, बार-बार सन्दूक बन्द करती और खोलती। वर्षा बन्द हो चुकी थी, केवल छत पर हका हुआ पानी टपक रहा था।

आखिर वह उसी बिस्तर के बण्डल पर बैठ गयी, और बोली-तुमने मुझे कसम क्यों दिलाई ?

रमा के हृदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला इसके सिवा मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या साधन था ?

जालपा-क्या तुम जानते हो कि मैं यहीं घुट-घुटकर मर जाऊँ ?

रमा-तुम ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुंह से निकालती हो ? मैं तो चलने को तैयार है, न मानोगी तो पहुँचाना ही पड़ेगा। जाओ मेरा ईश्वर मालिक है; मगर कम से कम बाबूजी और अम्मा से पूछ लो।

बुझती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली-वह मेरे कौन होते हैं जो उनसे पूछूं ?

रमा०-कोई नहीं होते ?

जालपा--कोई नहीं ! अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रुपये रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता। ये लोग क्या मेरे आँसू न पोंछ सकते थे ? मैं दिन-के-दिन यहाँ पड़ी रहती हैं। कोई झूठे भी पूछता है ? मुहल्ले की स्त्रियाँ मिलने आती है, कैसे मिलूं? यह सूरत अब मुझसे नहीं दिखाई जाती। न कहीं आना, न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कै दिन रह सकता है ? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आखिर दो लड़के और भी तो है, उनके लिए भी कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें।

रमा को बड़ी-बड़ी बातें करने का फिर अवसर मिला। वह खुश था कि इतने दिनों के बाद आज उसे प्रसन्न करने का मौका मिला। बोला- प्रिये, तुम्हारा खयाल बहुत ठीक है। जरूर यही बात है। नहीं तो ढाई तीन हजार उनके लिए क्या बड़ी बात थी ? पचास हजार बैंक में जमा है, दफ्तर तो केवल दिल बहलाने जाते है।

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ग़बन