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इतने में डाकिये ने पुकारा। रमा ने दरवाजे पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पारसल आया हुआ था। महाशब दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश पर में आये और जालपा के हाथों में रखकर बोले-तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है।

रमा ने चटपट कैची निकाली और पारसल खोला। उसमें देवदार की एक डिबिया निकली, उसमें एक चन्द्रहार रखा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हँसकर बोला-ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली; चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती है।

जालपा ने कुण्ठित स्वर में कहा- अम्माजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।

रमा ने विस्मित होकर कहा-लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज न होंगी?

जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा-मेरी बला से, रानी रूठेगी अपना सुहाग लेंगो। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हूँ। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आयी है। उस वक्त दया न आयी थी, जब मैं उनके घर से बिदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके प्रोढ़ने पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जायेंगे। मैं अम्माजी को यह दिखाना चाहती हूं कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूस्त्री नहीं है।

रमा ने सांत्वना देते हुए कहा- मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए ! सोचो, उन्हें कितना दुःख होगा। बिदाई के समय यदि न दिया, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।

जालपा–में इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है।

रमा०-आखिर क्यों ?

जालपा-मेरी इच्छा !

रमा०-इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?

जालपा रुंधे हुए स्वर में बोलो-कारण यही है कि अम्माजी इसे

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