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से बात बढ़ जाने का भय था, पर रमा को उसकी दृष्टि से ऐसा भासित हुआ, मानो उसे चोरी का रहस्य मालूम है और वह केवल संकोच के कारण उसे खोलकर नहीं कह रही है। उसे स्वप्न की बात भी याद आई, जो जालपा ने चोरी की रात को देखा था। वह दृष्टि वाण के समान उसके हृदय को छेदने लगी; उसने सोचा शायद मुझे भ्रम हुआ। इस दृष्टि में रोष के सिवा और कोई भाव नहीं है; मगर यह बोलती क्यों नहीं? चुप क्यों हो गयी! उसका चुप हो जाना हो गजब था। अपने मन का संशय मिटाने और जालपा के मन की थाह लेने के लिए रमा ने मानो डुबकी मारी-यह कौन जानता था कि डोली से उतरते ही यह विपत्ति सुम्हारा स्वागत करेगी।

जालपा आँखों में आँसू भरकर बोली--तो मैं तुमसे गहने के लिए रोती तो नहीं हूँ। भाग्य में जो लिखा था वह हुआ; आगे भी वही होगा, जो लिखा है। जो औरतें गहने नहीं पहनतीं, क्या उनके दिन नहीं कटते?

इस वाक्य ने रमा का संशय तो मिना दिया; पर इसमें जो तीव्र वेदना छिपी हुई थी, वह छिपी न रही। इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने पर भी वह सौ रुपये से अधिक संग्रह न कर सका था। बाबू लोगों के आदरसत्कार में उसे बहुत-कुछ गलना पड़ता था; मगर बिना खिलाये-पिलाये काम भी तो न चल सकता था। सभी उसके दुश्मन हो जाते और उखाड़ने की बात सोचने लगते। मुफ्त का धन अकेले नहीं हजम होता, वह वह अच्छी तरह जानता था। वह स्वयं एक पैसा भी व्यर्थ खर्च न करता। चतुर व्यापारी की भाँति वह जो कुछ खर्च करता था, वह केवल कमाने के लिए। आश्वासन देते हुए बोला--ईश्वर ने चाहा, तो दो-एक महीने में कोई चीज बन जायेगी।

जालपा--मैं उन स्त्रियों में नहीं हूँ, जो गहनों पर जान देती है। हाँ, इस तरह किसी के घर आते-जाते शर्म माती ही है।

रमा का चित्त ग्लानि से व्याकुल हो उठा। जालपा के एक-एक शब्द से निराशा टपक रही थी। इस अपार वेदना का कारण कौन था? क्या यह भी उसी का दोष न था, कि इन तीन महीनों में उसने कभी गहनों की चर्चा नहीं की? जालपा यदि संकोच के कारण इसकी चर्चा न करती थी

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