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रोया करता है। न किसी के घर जाती हूँ, न किसी को मुँह दिखाती हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि यह शोक मेरी जान ही लेकर छोड़ेगा। मुझसे वादे तो रोज किये जाते हैं, रुपये जमा हो रहे हैं, सुनार ठीक किया जा रहा है, डिजाइन तय किया जा रहा है। पर यह सब धोखा है और कुछ नहीं।

रमा ने तीनों चिट्ठियां जेब में रख लो 1 डाकखाना सामने ले निकल गया, पर उसने उन्हें छोड़ा नहीं। यह अभी तक यही समझती है कि मैं इसे धोखा दे रहा हूँ ! क्या कारूँ, कैसे विश्वास दिलाऊँ? अगर अपना बश होता तो इसी वक्त भाभूषशों के टोकरे भर-भर जालपा के सामने रख देता; उसे किसी बड़े सराफ़ की दूकान पर ले जाकर कहता, तुम्हें जो-जो चीजें लेनी हों, ले लो। इतनी अपार वेदना है, जिसने विश्वास का भी अपहरण कर लिया! उसको आज उस चोट का सच्चा अनुभव हुआ, जो उसने झूठी मर्यादा की रक्षा ले उसे पहुँचाई थी। अगर वह जानता, उस अभिनय का यह फल होगा, तो कदाचित् अपनी डोंगों का परदा खोल देता। क्या ऐसी दशा में भी, जब जालपा इस शोक-ताप से फुँकी जा रही थी, रमा को कर्ज लेने में संकोच करने की जगह थी? उसका हृदय कातर हो उठा। उसने पहली बार सच्चे हृदय से ईश्वर से याचना को--भगवान्, मुझे बाहे जो दंड देना, पर मेरी जालपा को मुझसे मत छीनना। इसके पहले मेरे प्राण हर लेना। उसके रोम-रोम से आत्मध्वनि निकलने लगी--ईश्वर, ईश्वर, मेरी दीन दशा पर क्या करो!

लेकिन इसके साथ ही उसे जालपा पर क्रोध भी आ रहा था। जालपा ने क्यों मुझसे यह बात नहीं कही? मुझसे क्यों परदा रखा और मुझसे परदा रखकर अपनी सहेलियों से यह दुखड़ा रोया?

बरामदे में माल तौला जा रहा था। मेज पर रुपये-पैसे रखे जा रहे थे और रमा चिन्ता में डूबा बैठा हुआ था। किससे सलाह ले। उसने विवाह ही क्यों किया? सारा दोष उसका अपना था। जब वह घर की दशा जानता था, तो क्यों उसने विवाह करने से इन्कार नहीं कर दिया? आज उसका मन काम में नहीं लगता था। समय से पहिले हो उठकर चला आया।

जालपा ने उसे देखते ही पूछा--मेरी चिट्टियाँ छोड़ तो नहीं दीं?

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