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रमा ने बहाना किया-अरे इनकी तो याद हो नहीं रही। जेब में पड़ी रह गयीं।

जालपा- यह बहुत अच्छा हुआ। लाओ मुझे दे दो, अब न भेजूंगी।

रमा० -क्यों, कल भेज दूंगा!

जालपा-नहीं अब मुझे भेजना ही नहीं है, कुछ ऐसी बातें लिख गयी थी, जो मुझे न लिखना चाहिये था। अगर तुमने छोड़ दी होती, तो मुझे दुःख होता। मैंने तुम्हारी निन्दा की थी।

वह कह कर वह मुस्कराई।

रमा० -जो बुरा है, दग़ाबाज़ है, धूर्त्त है, उसकी निंदा होनी ही चाहिए।

जालपा ने व्यग्र होकर पूछा-तुमने चिट्ठियाँ पढ़ ली क्या?

रमा ने निःसंकोच भाव से कहा- हाँ, यह कोई अक्षम्य अपराध है? जालपा कातर स्वर में बोली-तब तो तुम मुझसे बहुत नाराज होगें?

आँसुओ के आवेग से जालपा की आवाज रुक गयी। उसका सिर झुक गया और झूकी हुई आँखों से आंसुओं की बूंदें अञ्चल पर गिरने लगी। 'एक क्षण में उसने स्वर को संभाल कर कहा-मुझसे बड़ा भारी अपराध हुआ है। जो चाहो सजा दो; पर मुझसे अप्रसन्न मत हो। ईश्वर जानते हैं, तुम्हारे जाने के बाद मुझे कितना दुःख हुआ। मेरी कलम से न जाने कैसे ऐसी बातें निकल गयीं।

जालपा जातती थी कि रमा को आभूषणो की चिन्ता मुझसे कम नहीं है लेकिन मित्रों से अपनी व्यथा कहते समय हम बहुधा अपना दुःख बढ़ा कर कहते हैं। जो बातें परदे की समझी जाती हैं, उनकी चर्चा करने से एक तरह का अपमान जाहिर होता है। हमारे मित्र' समझते हैं, हमसे जरा भी दुराव नहीं रखता और उन्हें हमसे सहानुभूति हो जाती है। अपनापन दिखाने की यह आदत औरतों में कुछ अधिक होती है।

रमा जालपा के आँसू पोछते हुए बोला-मैं तुमसे अप्रसन्न नहीं हूँ प्रिये, अप्रसन्न होने की तो कोई बात ही नहीं है। आशा का विलम्ब ही दुराशा है। क्या मैं इतना नहीं जानता ? अगर तुमने मुझे मना न कर दिया होता, तो अब तक मैंने किसी-न-किसी तरह एक-दो चीजें अवश्य ही बनवा दी होती। मुझसे भूल यही हुई कि तुमसे सलाह ली। यह तो वैसा ही है जैसे मेहमान

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