पृष्ठ:ग़बन.pdf/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


चीज ली? अम्मां को देना होता, तो उसी वक्त दे देती जब गहने चोरी हो गये थे। क्या उनके पास रुपये न थे ?

जालपा असमंजस में पड़कर बोली-तो मुझे क्या मालूम था! अब भी तो लौटा सकते हो। कह देना, जिसके लिए लिया था, उसे पसंद नहीं पाया।

यह कहकर उसने तुरन्त कानों से रिंग निकाल लिये। कंगन भी उतार डाले और दोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ायों, जैसे कोई बिल्ली चूहे को अपनी पकड़कर से बाहर नहीं होने देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था। क्या उसके हृदय की भी यही दशा न थी? उसके मुख पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। क्यों वह रमा की पोर न देखकर भूमि की ओर देख रही थी ? क्यों सिर ऊपर न उठाती थी? किसी संकट से बच जाने में जो हार्दिक प्रानन्द होता है, वह कहाँ था ? उसको दशा ठोक उस माता की-सी थी, जो बालक को विदेश जाने की अनुमति दे रही हो। वही विवशता, वही कातरता, वही ममता इस समय जालपा के मुख पर उदय हो रही थी।

रमा उसके हाथ से किसों को ले सके, इतना कड़ा संयम उसमें न था। उसे तक़ाजे सहना, लज्जित होना, मुंह छिपाये फिरना, चिन्ता की आग में जलना, सब कुछ सहना मंजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था, जिससे जालपा का दिल टूट जाये, वह अपने को प्रभागिन समझने लगे। उसका सारा शान, सारी चेष्टा, सारा विवेक इस आघात का विरोध करने लगा। प्रेम और परिस्थितियों के संघर्ष में प्रेम ने विजय पायी।

उसने मुस्कराकर कहा-रहने दो, अब ले लिया है, तो क्या लौटायें। अम्माजी भी हंसेंगी।

जालपा ने बनावटी काँपते हुए कण्ड से कहा-अपनी चादर देखकर ही पांव फैलाने पाहिए। एक नयो विपत्ति मोल लेने को क्या जरूरत है?

रमा ने मानो जल में डूबते हुए कहा-ईश्वर मालिक है !

और तुरन्त नीचे चला गया।

हम चणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति का कैसे होम कर देते है !अगर जालपा मोह के इस झोंके में अपने

ग़बन
६९