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को स्थिर रख सकती, अगर रमा संकोच के आगे सिर न झुका देता, दोनों के हृदय में प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ भ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर न जाते।

ग्यारह बज गये थे, दफ्तर के लिए देर हो रही थी; पर रमा इस तरह जा रहा था, जैसे कोई अपने प्रिय बन्यु की दाह-क्रिया करके लौट रहा हो

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जालपा अब वह एकान्तवासिनी रमणी न थी, जो दिन-भर मुहँ लपेटे उदास खड़ी रहती थी। उसे अब घर में बैठना अच्छा न लगता था। अब तक तो वह मजबुर थी, कहीं आ-जान सकती थी। अब ईश्वर की दया से उसके पास गहने हो गये थे। फिर वह क्यों न मारे घर में पड़ी रहती ? वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं, जिसका स्वाद एकान्त में लिया जा सके। आभूषणों को सन्दूकची में बन्द करके रखने से या फ़ायदा ! मुहल्ले य बिरादरी में कहीं से बुलावा आता तो वह सास के साथ अवश्य जाती। कुछ दिनों के बाद सास की जरूरत भी न रही। वह अकेली ही पाने-जाने लगी। फिर कार्य-प्रयोजन की भी कैद नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्राभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुँचा दिया। उसके बिना मण्डली सूनी रहती थी। उसका कण्ठस्वर इतना कोपल था, भाषण इतना मधुर, छवि इतनी अनुपम, कि वह मण्डली की रानी मालूम होती थी। उसके आने से मुहल्ले के नारी-जीवन में जान-सी पड़ गयी। नित्य ही कहीं-न-कहीं जमाव हो जाता। घरटे दो घण्टे गा-बजाकर या गप-शप करके रमणियों दिल बहला लिया करती। कभी किसी के घर कभी किसी के। फागुन में पंद्रह दिन बराबर माना होता रहा। जालपा ने जैसा रूप पाया था, वैसा ही उदार हृदय भी पाया था। पान-पत्ते का खर्च प्रायः उसी के मत्थे पड़ता। कभी-कभी गायने बुलायी जाती, उनके सेवा-सत्कार का भार उसी पर था। कभी-कभी बह स्त्रियों के साथ गंगा स्नान करने जाती, तांगे का किराया और गंगा-तट पर जलपान का खर्च भी उसी के मत्ये जाता। इस तरह उसके दो-तीन रुपये रोज जाते थे। रमा आदर्श पति था, जालपा अगर मांगती तो प्राण तक उसके चरणों पर रख देता, रुपये की हकीकत ही क्या थी? उसका मुंह जोहता रहता

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