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कितने ही जान-पहचान के लोग बैठे नजर आते थे। वे उसे जालपा के साथ बैठे देखकर कितना हँसेंगे। आखिर एक दिन उसने समाज के सामने ताल टोंककर खड़े हो जाने का निश्चय कर ही लिया। जालपा से बोला-आज हम तुम सिनेमा-घर में साथ बैठेंगे।

जालपा के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। हार्दिक आनन्द की आभा चेहरे पर झलक उठी। बोली-साथ ! नहीं भाई, साथवालियाँ जीने न देंगी!

रमा० – इस तरह डरने से तो फिर कभी कुछ न होगा। यह क्या स्वांग है कि स्त्रयाँ मुँह छिपाते चिक की आड़ में बैठी रहें !

इस तरह यह मामला भी तय हो गया। पहले दिन दोनों झेंपते रहे; लेकिन दूसरे दिन से हिम्मत खुल गयी। कई दिनों के बाद वह समय भी आया, कि रमा और जालपा सन्ध्या समय पार्क में साथ-साथ टहलते दिखाई दिये।


जालपा ने मुसकराकर कहा- कहीं बाबूजी देख लें तो?

रमा०-तो क्या, कुछ नहीं।

जालपा-मैं तो मारे शर्म के गड़ जाऊँ!

रमा०-तभी तो मुझे भी शर्म आयेगी, मगर बाबूजी खुद ही इधर न आयेंगे!

जालपा-और जो कहीं अम्माजी देख लें ?

रमा०-अम्मा से कौन डरता है, दो दलीलों में ठीक कर दुँगा।


दस ही पाँच दिन में जालपा ने नये महिला समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद् के मंच पर आता है। विद्वान् लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतिभा के सामने सिर झुका देते हैं। जालपा भी 'आयी, देखा, और विजय कर लिया।' उसके सौन्दर्य में वह गरिमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजस्विता थी जो कुलीन महिलाओं के लक्षण हैं। पहले ही दिन महिला ने जालपा को चाय का निमन्त्रण दे दिया और जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न कर सकी।

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