कर्मयोगशास्त्र। अवश्य भरा हुआ है। कॉट के मतानुसार मानवी ज्ञान की उन्नति की यह दूसरी सीढ़ी है। इसे वह 'आध्यात्मिक' कहता है। परन्तु जब इस रीति से सृष्टि का विचार करने पर भी प्रत्यक्ष उपयोगी शाखीय ज्ञान की कुछ वृद्धि नहीं हो सकी, तब अंत में मनुप्य सृष्टि के पदार्थों के एश्य गुगा-धर्मी ही का और भी अधिक विचार करने लगा, जिससे वह रेल और तार सरीखें उपयोगी आविष्कारों को ढूंढ़ कर वाघ सृष्टि पर अपना अधिक प्रभाव जमाने लग गया है। इस मार्ग को कॉट ने आधिभौतिक' नाम दिया है । उसने निश्चित किया है कि किसी भी शास या विषय का विवे- चन करने के लिये, अन्य मार्गों की अपेक्षा, यही आधिभौतिक मार्ग अधिक श्रेष्ठ और लाभकारी है । कोट के मतानुसार, समाजशास्त्र या कर्मयोगशास्त्र का तात्विक विचार करने के लिये, इसी आधिभौतिक मार्ग का अवलम्ब करना चाहिये । इस मार्ग का अवलम्ब करके इस पंडित ने इतिहास की आलोचना की और सब व्यवहारशाशों का यही मथितार्थ निकाला है कि, इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का परम धर्म यही है कि वह समस्त मानव-जाति पर प्रेम रख कर सय लोगों के कल्याण के लिये सदैव प्रयत्न करता रहे । मिल और स्पेन्सर आदि अंग्रेज़ पंडित इसी मत के पुरस्कर्ता कहे जा सकते हैं । इसके उलटा कान्ट, हेगेल, शोपेनहर आदि जर्मन तत्वज्ञानी पुरुषों ने, नीतिशास्त्र के विवेचन के लिये, इस आधिभौतिक पद्धति को अपूर्ण माना है। हमारे चेदान्तियों की नाई आध्यात्मदृष्टि से ही नीति के समर्थन करने के मार्ग को, आज कल उन्होंने यूरोप में फिर भी स्थापित किया है । इसके विपय में और अधिक श्रागे लिखा जायगा। एक ही अर्थ विवक्षित होने पर भी “अच्छा और पुरा" के पर्यायवाची भिन्न भिन्न शब्दों का, जैसे “कार्य-अकार्य " और "धयं-अधर्म्य " का, उपयोग क्यों होने लगा? इसका कारण यही है कि विपय-प्रतिपादन का मार्ग या पुष्टि प्रत्येक की भिन्न भिन्न होती है। अर्जुन के सामने यह प्रश्न या, कि जिस युद्ध में भीष्म- द्रोण आदि का वध करना पड़ेगा उसमें शामिल होना उचित है या नहीं (गी. २.७) । यदि इसी प्रश्न के उत्तर देने का मौका किसी आधिभौतिक पंडित पर आता, तो वह पहले इस बात का विचार करता कि भारतीय युद्ध से स्वयं अर्जुन को दृश्य हानि-लाम कितना होगा और कुल समाज पर उसका क्या परिणाम होगा। यह विचार करके तन उसने निश्चय किया होता कि युद्ध करना “ न्याय्य " है या “ अन्याय्य "। इसका कारण यह है कि किसी कर्म के अच्छेपन या बुरेपन का निर्णय करते समय ये आधिभौतिक पण्डित यही सोचा करते हैं कि इस संसार से उस कर्म का आधिभौतिक परिणाम अर्थात प्रत्यक्ष वाय परिणाम क्या हुआ या होगा ये लोग इस आधिभौतिक कसौटी के सिया और किसी साधन या कसौटी को नहीं मानते । परन्तु ऐसे उत्तर से अर्जुन या समाधान होना संभव नहीं था। उसकी पुष्टि इससे भी अधिक व्यापक थी । उसे केवल अपने सांसारिक हित का विचार नहीं करना था; किन्तु उसे पारलौकिक दृष्टि से यह भी विचार कर
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