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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/११५

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७६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । मतों का सिर्फ सारांश देने के लिये ही एक स्वतन्त्र अन्य लिखना पड़ेगा । इसलिये, श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोगशास्त्र का स्वरूप और महत्व पूरी तौर से ध्यान में श्रा जाने के लिये, नीतिशास्त्र के इस प्राधिभौतिक पंथ का जितना स्पष्टीकरण अत्यावश्यक है उतना ही संक्षिप्त रीति से इस प्रकरण में एकत्रित किया गया है । इससे अधिक बातें जानने के लिये पाठकों को पश्चिमी विद्वानों के मूल अन्य ही पढ़ना चाहिये ! ऊपर कहा गया है कि, परलोक के विषय में, प्राधिमातिकबादी उदासीन रहा करते हैं परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि, इस पंथ के सव विद्वान् लोग स्वार्थसाधक, अपस्वार्थी अथवा अनीतिमान् हुआ करते हैं । यदि इन लोगों में पारलौकिक दृष्टि नहीं है तो न सही । ये ननुष्य के कर्तव्य के विषय में यही कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी ऐहिक दृष्टि ही को, जितनी बन सके उतनी, व्यापक बना कर समूचे जगत के कल्यागा के लिये प्रयत्न करना चाहिये । इस तरह अंतःकरण से पूर्ण उत्साह के साथ उपदेश करनेवाले कोन्ट, सिल, स्पेन्सर आदि साविक वृत्ति के अनेक पंडित इस पन्य में हैं और उनके अन्य अनेक प्रकार के उदात्त और प्रगल्भ विचारों से भरे रहने के कारण लव लोगों के पड़ने योन्य हैं। यद्यपि कर्मयोगशास्त्र के पन्य भिन्न हैं, तथापि जब तक “संसार कता कल्याण " यह बाहरी उद्देश छूट नहीं गया है तब तक भिन्न रीति से नीतिशास्त्र का प्रतिपादन करनेवाले किसी मार्ग या पन्य का उपहास करना अच्छी बात नहीं है । अत्तु; आधिभौतिकवादियों में इस विषय पर मतभेद है कि, नैतिक कर्म-अकर्म का निर्णय करने के लिये जिस आधिनौतिक वाह्य सुख का विचार करना है वह किसका है ? स्वयं अपना है या दूसरे का, एक ही व्यक्ति का है, या अनेक व्यक्तियों का ? अव संक्षेप में इस बात का विचार किया जायगा कि नये और पुराने सभी आधिभौतिक-वादियों के मुख्यतः कितने वर्ग हो सकते हैं, और उनके ये पन्थ कहाँ तक उचित अथवा निर्दोष हैं। इनमें से पहला वर्ग केवल स्वार्थ-सुखवादियों का है। इस पन्य का कहना है कि परलोक और परोपकार सव मूठ है, आध्यात्मिक धर्मशास्त्रों को चालाक लोगों ने अपना पेट भरने के लिये लिखा है, इस दुनिया में स्वार्य ही सत्य है और जिस उपाय से स्वार्थ सिद्धि हो सके अथवा जिसके द्वारा स्वयं अपने आधिभौतिक सुख की वृद्धि हो उसी को न्याय्य, प्रशन्त था श्रेयस्कर समझना चाहिये । हमारे हिंदु- स्थान में, बहुत पुराने समय में, चार्वाक ने बड़े उत्साह से इस मत का प्रतिपादन किया था, और रामायण में जावालि ने अयोध्याकांड के अंत में श्रीरामचंद्रजी को जो कुटिल उपदेश दिया है वह, तथा महाभारत में वर्णित कणिक-नीति (मभा. आ. १४२) भी इसी मार्ग की है । चावांक का मत है, कि जब पञ्चमहाभूत एकत्र होते हैं तव उनके मिलाप से आमा नाम का एक गुण उत्पन्न होजाता है और देहके जलने पर टलके साय साय वह भी जल जाता है इसलिये विद्वानों का कर्तव्य है कि, आत्मविचार के मंझट में न पड़ कर, जब तक यह शरीर जीवित अवस्था में है तब तक " ऋण ले कर भी त्योहार मना "ऋणं कृत्वा धृतं पिवेत्-क्योंकि