आधिभौतिक सुखवाद। मरने पर कुछ नहीं है। चार्वाक हिन्दुस्थान में पैदा हुआ था इसलिये उसने धृत ही से अपनी तृष्णा बुझा ली; नहीं तो उक्त सूत्र का रूपान्तर “ ऋणं कृत्वा सुरां पिबेत् " हो गया होता! कहाँ का धर्म और कहाँ का परोपकार ! इस संसार में जितने पदार्थ परमेश्वर ने, शिव, शिव ! भूल हो गई ! परमेश्वर आया कहाँ से?-इस संसार में जितने पदार्थ हैं वे सब मेरे ही उपभोग के लिये हैं। उनका दूसरा कोई भी उपयोग नहीं दिखाई पड़ता, अर्थात् है ही नहीं ! मैं मरा कि दुनिया डूबी ! इसलिये जब तक मैं जीता हूँ तब तक, आज यह तो कल वह इस प्रकार सब कुछ, अपने अधीन करके अपनी सारी काम-वासनाओं को तृप्त कर लूंगा। यदि मैं तप करूंगा अथवा कुछ दान दूंगा तो वह सब मैं अपने महत्त्व को बढ़ाने ही के लिये करूगा; और यदि मैं राजसूय या अश्वमेध यज्ञ करूंगा तो उसे मैं यही प्रगट करने के लिये करूंगा कि मेरी सत्ता या अधिकार सर्वत्र अबाधित है। सारांश, इस जगत् का "मैं " ही केन्द्र हूँ और केवल यही सब नीतिशास्त्रों का रहस्य है बाकी सब झूठ है। ऐसे ही आसुरी मताभिमानियों का वर्णन गीता के सोल- हवें अध्याय में किया गया है-ईश्वरोऽहमई भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी " (गीता १६. १४)-मैं ही ईश्वर, मैं ही भोगनेवाला और मैं ही सिद्ध, बलवान् और सुखी हूँ। यदि श्रीकृष्ण के बदले जावालि के समान इस पन्थवाला कोई आदमी अर्जुन को उपदेश करने के लिये होता, तो वह पहले अर्जुन के कान मल कर यह बतलाया कि “ अरे! तू मूर्ख तो नहीं है? लड़ाई में सब को जीत कर अनेक प्रकार के राजभोग और विलासों के भोगने का यह बढ़िया मौका पा कर भी तु यह करूं कि वह करूं !' इत्यादि व्यर्थ भ्रम में कुछ का कुछ बक रहा है ! यह मौका फिर से मिलने का नहीं । कहाँ के आत्मा और कहाँ के कुटुम्बियों के लिये बैठा है ! उठ, तैयार हो, सब लोगों को ठोक पीट कर सीधा कर दे और हस्तिनापुर के साम्राज्य का सुख से निष्कंटक उपभोग कर !- इसी में तेरा परम कल्याण है। स्वयं अपने दृश्य तथा ऐहिक सुख के सिवा इस संसार में और रखा क्या है?" परन्तु अर्जुन ने इस घृणित, स्वाथ-साधक और आसुरी उपदेश की प्रतीक्षा नहीं की-उसने पहले ही श्रीकृष्ण से कह दिया कि:- एतान्न हंतुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ " पृथ्वी का ही क्या, परन्तु यदि तीनों लोकों का राज्य ( इतना बड़ा विषय-सुख) भी (इस युद्ध के द्वारा ) मुझे मिल जाय, तो भी मैं कौरवों को मारना नहीं चाहता । चाहे वे मेरी गर्दन भले ही उड़ा दें !" (गी. १. ३५) । अर्जुन ने पहले ही से जिस स्वार्थपरायण और आधिभौतिक सुखवाद का इस तरह निषेध किया है, उस आसुरी मत का केवल उल्लेख करना ही उसका खंडन करना कहा जा सकता है। दूसरों के हित-अनहित की कुछ भी परवा न करके, सिर्फ अपने खुद के विपयोपभोग सुख को परम पुरुषार्थ मान कर, नीतिमत्ता और धर्म को गिरा देने.
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