पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१२५

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गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशाब। केवल संख्या की दृष्टि से नीति का उचित निर्णय नहीं हो सकता, और इस वात का निश्चय करने के लिये कोई भी बाहरी साधन नहीं है कि अधिकांश लोगों का अधिक सुख किसमें है। इन दो आक्षेपों के सिवा इस पन्य पर और भी बड़े बड़े आक्षेप किये जा सकते हैं। जैसे, विचार करने पर यह आप ही मालूम हो जायगा कि किसी काम के केवल बाहरी परिणाम से ही उसको न्याय्य अथवा अन्याय्य कहना बहुधा असम्भव हो जाता है। इम लोग किसी घड़ी को, उसके ठीक ठीक समय बतलाने न बतलाने पर, अच्छी या सराव कहा करते हैं, परतु इसी नीति का उपयोग मनुष्य के कार्यों के सम्बन्ध में करने के पहले हमें यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये कि मनुष्य, घड़ी के समान, कोई यंत्र नहीं है । यह बात सच है कि सब सत्पुरुप जगत् के कल्याणार्थ प्रयत्न किया करते हैं परन्तु इससे यह उलटा अनुमान निश्चयपूर्वक नहीं किया जा सकता कि जो कोई लोक-कल्याण के लिये प्रयत्न करता है, वह प्रत्येक साधु ही है। यह भी देखना चाहिये कि मनुष्य का अन्तःकरण कैसा है। यंत्र और मनुष्य में यदि कुछ भेद है तो यही कि एक हृदयहीन है और दूसरा हृदययुक्त है और इसी लिये अज्ञान से या भूल से किन्य गये अपराध को कायदे में क्षम्य मानते हैं। तात्पर्य कोई काम अच्छा है या बुरा, धर्म्य है या अधयं, नीति का है अथवा अनीति का, इत्यादि यातों का सच्चा निर्णय उस काम के केवल बाहरी फल या परिणाम अर्थात् वह अधिकांश लोगों को अधिक सुख देगा कि नहीं इतने ही से नहीं किया जा सकता । उसी के साथ साथ यह भी जानना चाहिये कि उस काम को करनेवाले की चुद्धि, वासना या हेतु कैसा है । एक समय की यात है कि अमेरिका के एक बड़े शहर में, सब लोगों के सुख और उपयोग के लिये, ट्रामवे की बहुत आवश्यकता थी । परन्तु अधिकारियों की आज्ञा पाये विना ट्रामवे नहीं बनाई जा सकती थी। सरकारी मंजूरी मिलने में बहुत देरी हुई । तव ट्रामवे के व्यवस्थापक ने अधिकारियों को रिशवत दे कर जल्द ही मंजूरी ले ली। दामवे बन गई और उससे शहर के सब लोगों को सुभीता और फायदा हुआ । कुछ दिनों के बाद रिशवत की बात प्रगट हो गई और उस व्यवस्थापक पर फौजदारी मुकदमा चलाया गया । पहली ज्यूरी (पंचायत) का एकमत नहीं हुआ इसलिये दूसरी ज्यूरी चुनी गई । दूसरी ज्यूरी ने व्यवस्थापक को दोपी ठहराया, अतएव उसे सज़ा दी गई । इस उदाहरण में अधिक लोगों के अधिक सुखवाले नीतितत्व से काम चलने का नहीं। प्योंकि, यद्यपि 'घूस देने से ट्रामवे बन गई ' यह बाहरी परिणाम अधिक लोगों को अधिक सुखदायक था, तथापि इतने हीसे घूस देना न्याय्य हो नहीं सकता । दान करने को अपना धर्म (दातव्यं) समझ कर निष्काम बुद्धि से दान करना, और कीर्ति के लिये तथा अन्य फल की प्राशा से दान करना, इन दो कृत्यों का 1 यह उदाहरण डॉक्टर पॉल केरस को The Ethical Problem ( PP. 58, 59.2nd Ed) नामक पुस्तक से किया गया है।