पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५२

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सुखदुःखविवेक। ११३ (२. १४, १५) मैं इन सुख-दुःखों को निष्काम बुद्धि से भोगने का उपदेश किया है। भगवान् श्रीकृष्ण ने इसी उपदेश को बार बार दुहराया है (गी. ५.८; १३.६)। वेदान्तशास्त्र की परिभाषा में इसी को “ सब बमों को प्रशार्पण करना" कहते है और भक्तिमार्ग में प्रहार्पणा ' बदले आप्णार्पण शब्द की योजना की जाती है। बस यही गीतार्य का सारांश है। कर्म चाहे किसी भी प्रकार का हो, परन्तु कर्म करने की इच्छा और उद्योग को बिना घोड़े तथा फल-प्राति की आसक्ति न रस का (अर्थात् नित्संग बुद्धि से) उसे करते रहना चाहिये, और साथ साथ इने भविष्य में परिणाम-लस्य में मिलनेवाले सुख-दुःखों को भी एक समान भोगने के लिये तैयार रहना चाहिये । ऐसा करने से अमर्यादित तृष्णा और असन्तोप-जानित दुष्परिणागों से तो इस बचेंगे ही, परन्तु दूसरा लाभ यह होगा, कि तृपया या असन्तोप के साथ साथ कर्म को भी त्याग देने से जीवन के ही नष्ट हो जाने का जो प्रसंगमा सकता है, वह भी नहीं आ सकेगा; और, हमारी मनोवृत्तियों शुद्ध हो कर माशिमान के लिये हितप्रद हो जायेंगी । इसमें सन्देह नहीं कि इस तरह कलाशा घोटने के लिये भी इन्द्रियों का और मन का वैराग्य से पूरा दमन करना पड़ता है । परन्तु स्मरण रहे कि इन्नियों को स्वाधीन कारको स्वार्थ के पदले, पैराग्य से तथा निकास बुद्धि से लोकसंग्रह के लिये, उन्हें अपने अपने व्यापार करने देना पुछ और बात है और संन्यासमार्गानुसार तृप्या को मारने के लिये इन्द्रियों के सभी व्यापारों को अर्थात् कलों को प्राग्रहपूर्वक समूल नष्ट कर डालगा बिलकुल ही लिया बात है- इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। गीता में मिल पैराग्य का और जिस शन्द्रियाणिग्रह का उपदेश किया गया है वह पहले प्रकार का है, दूसरे प्रकार का नहीं और उसी तरह अजुगीता (मभा. अय. ३२.१७-२३) में जनक-त्रामण- संवाद में राजा जनक घासण-रूपधारी धर्म से कहते हैं कि:- शृणु बुद्धिं च यां तात्वा सर्वत्र विषयो मम । नाहमात्मार्थमिच्छामि गंधान प्राणगतानपि ।। ... नाहगात्मार्थमिच्छामि मनो नित्यं मनोतर । मनो मे निर्मित तस्मात् चशे तिधति सर्वदा ।। अर्थात् " जिस (वैराग्य) बुद्धि को मन में धारण करके मैं सब विषयों का सेवन करता हूँ, उसका हाल सुनो । नाक से मैं अपने लिये ' वास नहीं होता, (आँखों से मैं अपने लिये नहीं देखता, इत्यादि) और मन का भी उपयोग में आया के लिये, अर्थात् अपने लाभ के लिये, नहीं करता; सतएव मेरी नाक (आँख इत्यादि) और मन मेरे वश में हैं, अर्थात् मैंने उन्हें जीत लिया है । " गीता के वचन (गी. ३. ६,७) का भी यही तात्पर्य है कि जो मनुष्य केवल इन्द्रियों की पुत्ति को पी. १५