पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१६५

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१२६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला प्रकरण में यह बतलाया भी गया है कि धर्म, सत्य, वृत्त, शील,श्रीश्रादि देवताओं ने प्रह्लाद के शरीर को छोड़ कर इन्द्र के शरीर में कैसे प्रवेश किया । कार्य-अकार्य का श्रथवा धर्म-अधर्म का निर्णय करनेवाले देवता का नाम भी 'धर्म' ही है। ऐसे वर्णन पाये जाते हैं कि, शियि राजा के सत्व की परीक्षा करने के लिये श्येन का रूप धर कर, और युधिष्ठिर की परीक्षा लेने के लिये प्रथम यदरूप से तथा दूसरी धार कुत्ता यन कर, धर्मराज प्रगट हुए थे । स्वयं भगवद्गीता (१०,३४) में भी कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, पति और क्षमा ये सय देवता माने गये हैं। इनमें से स्मृति, मेधा, एति और क्षमा मन के धर्म है । मन भी एक देवता है; और, परया का प्रतीक मान कर, उपनिपदों में उसकी उपासना भी बतलाई गई है (ते. ३.४, छां. ३.१८) । जब मनुजी कहते हैं कि " मनःपूतं समाचरेत," (६.५६) -मन को जो पवित्र मानूम हो वही करना चाहिये-तब यही वोध होता है कि उन्हें मन' शब्द से मनोदेवता ही अभिप्रेत है । साधारण व्यवहार में हम यही कहा करते हैं कि जो मन को अच्छा मालूम हो वही करना चाहिये। मनुजी ने मनुसंहिता के चौथे अध्याय (१.९६१) में यह यात विशेष स्पट कर दी है कि:- यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात् परितोषोऽन्तरात्मनः । तत्प्रयलेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ।। वह कर्म प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये जिसके करने से हमारा अन्तरात्मा संतुष्ट हो, और जो कर्म इसके विपरीत हो उसे छोड़ देना चाहिये। इसी प्रकार चातु- वर्य-धर्म आदि व्यावहारिक नीति के मूल तत्वों का उल्लेख करते समय मनु, याज्ञवल्क्य आदि स्मृति-ग्रंथकार भी यही कहते हैं:- वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । एतच्चतुर्विध प्राहुः साक्षादमन्य लक्षणम् ॥ "वेद, स्मृति, शिष्टाचार और अपने आत्मा को प्रिय मालूम होना-ये धर्म के चार मूलतत्त्व है" (मनु, २. १२)। " अपने आत्मा को जो प्रिय मानूम हो"-इस का अर्थ यही है कि मन को जो शुद्ध मालूम हो । इससे स्पष्ट होता है कि जय श्रुति, स्मृति और सदाचार से किसी कार्य की धर्मता या अधर्मता का निर्णय नहीं हो सकता था, तव निर्णय करने का चौथा साधन 'मनःपूतता' समझी जाती थी। पिछले प्रकरण में कही गई प्रहाद और इन्द्र की कया यतला चुकने पर, 'शील' के लक्षण के विषय में, एतराष्ट्र ने महाभारत में, यह कहा है:- यदन्येषां हितं न स्यात् आत्मनः फर्म पौत्यम् । अपनपेत या येन न तत्कुर्यात् कथंचन ॥ अर्थात् “हमारे जिस कर्म से लोगों का हित नहीं हो सकता, अथवा जिसके करने में स्वयं अपने ही को लजा मालूम होती है, वह कमी नहीं करना चाहिये ' (ममा.

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