पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७३

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१३४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । ७. ४. १ देखो)। परन्तु यहाँ पर 'सकस' शब्द का उपयोग-निश्चय की अपेक्षा न रखते हुए-अमुक यात अमुक प्रकार की मालूम होना, मानना, कल्पना करना, सम- झना, अथवा कुछ योजना करना, इच्छा करना, चिंतन करना, मन में लाना आदि च्या- पारों के लिये ही किया गया है। परन्तु, इस प्रकार वकील के सश, अपनी कल्प- नामा को बुद्धि के सामने निर्णयार्थ सिर्फ उपस्थित कर देने ही से मन का काम पूरा नहीं हो जाता । बुद्धि के द्वारा वुरे-भले का निर्णय हो जाने पर, जिस बात को बुद्धि ने ग्राह्य माना है उसका कमेद्रियों से आचरण कराना, अयांत, बुद्धि की आज्ञा को कार्य में परिणत करना-यह नाजिर का काम भी मन ही को करना पड़ता है। इसी कारण मन की व्याख्या दूसरी तरह भी की जा सकती है। यह कहने में कोई आपत्ति नहीं कि, बुद्धि के निर्णय की काररवाई पर जो विचार किया जाता है, वह भी एक प्रकार से सक्षल्प-विकल्पात्मक ही हो परन्तु इसके लिये संकृत में 'व्याकरण-विस्तार करना ' यह स्वतंत्र नाम दिया गया है । इसके अतिरिक्त शेप सब कार्य बुद्धि के हैं। यहां तक कि मन, स्वयं अपनी ही कल्पनाओं के सार-प्रसार का विचार नहीं करता । सार-असार-विचार करके किसी भी वस्तु का अवार्य ज्ञान आत्मा को करा देना, अथवा चुनाव करके यह निश्चय करना कि अमुक वस्तु अमुक प्रकार की है या तर्क से कार्य-कारणा-सम्बन्ध को देख कर निश्चित अनुमान करना, अथवा कार्य- अकार्य का निर्णय करना, इत्यादि सब व्यापार युद्धि के हैं । संस्कृत में इन व्यापारों को व्यवसाय' या 'अध्यवसाय' कहते हैं। अतएव इन दो शन्दों का उपयोग करके, बुद्धि' और 'मन' का भेद यतलाने के लिये, महाभारत (शां. २५१.५) में यह न्याख्या दी गई है:- व्यवसायात्मिका बुद्धिः मनो व्याकरणात्मकम् ॥ " बुद्धि (इन्द्रिय ) व्यवसाय करती है अर्थात् सार-प्रसार-विचार करके कुछ निश्चय करती है और मन, व्याकरण अथवा विस्तार करता है यह अगली व्यवस्था करनेवाली प्रवर्तक इन्द्रिय है, अर्थात् बुद्धि व्यवसायात्मिक है और मन च्याकर- णात्मक है ।" भगवद्गीता में भी " व्यवसायात्मिका बुद्धिः " शब्द पाये जाते है (गी. २. १४); और वहाँ भी बुद्धि का अर्थ 'सार-प्रसार-विचार करके निश्चय करनेवाली इन्द्रिय ' ही है। ययार्थ में वृद्धि, केवल एक तलवार है। जो कुछ उसकसामने आता है या लाया जाता है, उसकी काट-छाँट करना ही उसका काम है उसमें दूसरा कोई भी गुण अथवा धर्म नहीं है (मभा. वन. १८१, ६)। संकल्प, वासना, इच्छा, स्मृति, ति, श्रद्धा, उत्साह, करन्या, प्रेम, दया, सहानु- भूति, कृतज्ञता, काम, लजा, यानन्द, भय, राग, संग, द्वेष, लोम, मद, मत्सर, क्रोध इत्यादि सब मन ही के गुण अथवा धर्म हैं (वृ. १.५.२, मैयु. ६.३०)। जैसी जैसी ये मनोवृत्तियां जागृत होती जाती है वैसे ही वैसे कर्म करने की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति हुआ करती है। उदाहरणार्थ, मनुष्य चाहे जितना बुद्धिमान् हो और चाहे वह गरीब लोगों की दुर्दशा का हाल भली भाँति जानता हो, तथापि