पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७४

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आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । १३५ यदि उसके हृदय में करुणावृत्ति जागृत ग हो तो उसे गरीबों की सहायता करने की इच्छा कभी होगी ही नहीं। अथवा, यदि धैर्य का प्रभाव हो तो युद्ध करने की इच्छा होने पर भी वह नहीं लड़ेगा। तात्पर्य यह है कि, बुद्धि सिर्फ यही बतलाया करती है कि, जिस बात को करने की इस इच्छा करते हैं उसका परिणाम क्या होगा। इच्छा अथवा धैर्य श्रादि गुण युति के धर्म नहीं हैं, इसलिये बुद्धि स्वयं (अर्थात् विना मग की सहायता लिये ही) कभी इन्द्रियों को प्रेरित नहीं कर सकती। इसके विरुद्ध क्रोध आदिधृत्तियों के वश में हो कर स्वयं मन चाहे इन्द्रियों को प्रेरित भी कर सके, तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि, बुद्धि के सार-असार-विचार के बिना, केवल मनोवृत्तियों की प्रेरणा ले, किया गया काम नीति की दृष्टि से शुद्ध ही होगा । उदाहरणार्थ, यदि युद्धि का उपयोग न कर, केवल करुणावृत्ति से कुछ दान किया जाय तो संभव है कि वह किसी अपान को दे दिया जावे और उसका परिणाम भी बुरा हो। सारांश यह है, कि बुद्धि की सहायता के विना केवल मनो- वृत्तियाँ अन्धी हैं। अतएव मनुष्य का कोई काम शुद्ध तभी हो सकता है जब कि बुद्धि शुद्ध हो, अर्थात् वह भले-बुरे का अचूक निर्णय कर सके; मन बुद्धि के अनु- रोध से आचरण करे; और इन्द्रियाँ मन के अधीन रहें। मन और बुद्धि के सिवा 'अंतःकरण ' और 'चित्त' ये दो शब्द भी प्रचलित हैं। इनमें से अंतःकरण' शब्द का धात्वर्थ भीतरी करण अर्थात् इन्द्रिय' है, इसलिये उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सभी का सामान्यतः समावेश किया जाता है और जब 'मन' पहले पहल वा विपयों का ग्रहण अर्थात् चिंतन करने लगता है तब वही चित्त' हो जाता है (मभा. शां. २७४. १७)। परन्तु सामान्य व्यवहार में इन सब शब्दों का अर्थ एक ही सा माना जाता है, इस कारण समझ में नहीं आता कि किस स्थान पर कौन सा अर्थ विवक्षित है। इस गड़बड़ को दूर करने के लिये ही, उक्त अनेक शब्दों में से, मन और बुद्धि इन्हीं दो शब्दों का उपयोग, शास्त्रीय परिभाषा में ऊपर कहे गये निश्चित अर्थ में किया जाता है। जब इस तरह मन और बुद्धि का भेद एक बार निश्चित कर लिया गया तब, न्यायाधीश के समान, घुद्धि को मन से श्रेष्ठ मानना पड़ता है। और मन उस न्यायाधीश (बुद्धि) का मुंशी बन जाता है। " मनसस्तु पर बुद्धिः" - इस गीता-वाक्य का भावार्थ भी यही है कि मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ एवं उसके परे है (गी. ३. ४२) । तथापि, जैसा कि ऊपर कह आये हैं, उस मुंशी को भी दो प्रकार के काम करने पड़ते हैं:-(१) ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अथवा बाहर से आये हुए संस्कारों की व्यवस्था करके उनको बुद्धि के सामने निर्णय के लिये उपस्थित करना; और (२) बुद्धि का निर्णय हो जाने पर उसकी आज्ञा अथवा डाक कर्मेंद्रियों के पास भेज कर बुद्धि का हेतु सफल करने के लिये आवश्यक वाथ क्रिया करवाना ! जिस तरह दुकान के लिये माल खरीदने का काम और दुकान में बैठ कर बेचने का काम भी, कहीं कहीं, उस दुकान के एक ही नौकर को करना पड़ता है, उसी तरह मन को