पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७५

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१३६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । भी दुहरा काम करना पड़ता है। मान लो कि, इमें एक मित्र देख पड़ा और उसे पुकारने की इच्छा से हमने उसे 'अरे' कहा। अब देखना चाहिये कि इतने समय में, अन्तःकरण में कितने व्यापार होते हैं। पहले आँखों ने अथवा ज्ञानेन्द्रियों ने यह संस्कार मन के द्वारा बुद्धि को भेजा कि हमारा मित्र पास ही है, और बुद्धि के द्वारा उस संस्कार का ज्ञान प्रात्मा को हुआ। यह हुई ज्ञान होने की क्रिया । तब आत्मा बुद्धि के द्वारा यह निश्चय करता है कि मित्र को पुकारना चाहिये और, बुद्धि के इस हेतु के अनुसार कारवाई करने के लिये मन में बोलने की इच्छा उत्पन्न होती है और मन हमारी जिह्वा (कर्मेन्द्रिय) से 'अरे !' शब्द का उच्चा. रण करवाता है। पाणिनि के शिक्षा-अन्य में शब्दोचारण-क्रिया का वर्णन इसी वात को ध्यान में रख कर किया गया है:- आत्मा बुद्ध्या समेत्याऽन् मनो युक्त विवक्षया । सुतः कायामिमाहन्ति स प्रेरयति मान्तम् । भारतस्तूरसि चरन् मद्रं जनयति स्वरम् ॥ अर्थात् " पहले आत्मा बुद्धि के द्वारा सब बातों का आकलन करके मन में बोलने की इच्छा उत्पन्न करता है, और जब मन कायाग्नि को दलकाता है तब कायाग्नि वायु को प्रेरित करती है। तदनन्तर यह वायु छाती में प्रवेश करके मंद्र स्वर उत्पन्न करती है। यही वर पाने कराट-तानु आदि के वर्ण-भेद-रूप से मुख के बाहर आता है। उक्त श्लोक के अन्तिम दो चरण मेव्युपनिषद में भी मिलते हैं (मैन्यु.७.३१); और, इससे प्रतीत होता है कि ये लोक पाणिनि से भी प्राचीन हैं। आधुनिक शारीरशास्त्रों में कायाग्नि को मजातन्तु कहते हैं। परन्तु पश्चिमी शारीरशास्त्रज्ञों का कथन है कि मन मी दो है, क्योंकि बाहर के पदायों का ज्ञान भीतर लानेवाले और मन के द्वारा बुद्धि की आज्ञा कर्मेन्द्रियों को जतलानेवाले मजा- तन्तु, शरीर में, भिन्न भिन्न हैं। हमारे शास्त्रकार दो मन नहीं मानते; उन्हों ने मन और बुद्धि को भिन्न वतला कर सिर्फ यह कहा है कि मन उभयात्मक है, अयांत वह कर्मेन्द्रियों के साथ कमेन्द्रियों के समान और ज्ञानेन्द्रियों के साथ ज्ञानेन्द्रियाँ के समान काम करता है। दोनों का तात्पर्य एक ही है। दोनों की दृष्टि से यही प्रगट है कि, बुद्धि निश्चयकता न्यायाधीश है, और मन पहले ज्ञानेन्द्रियों के साथ संकल्प-विकासात्मक हो जाया करता है तथा फिर कमेन्द्रियों के साय व्याकरणात्मक या कारवाई करनेवाला अर्थात् कमेन्द्रियों का साक्षात् प्रवर्तक हो जाता है। किसी बात का व्याकरण' करते समय कभी कभी मन यह संकल्प-विकल्प भी किया करता है कि बुद्धि की आज्ञा का पालन किस प्रकार किया जाय। इसी कारण मन मेक्समूलर साहद ने लिखा है कि मैञ्युपनिषद्, पाणिनि की अपेक्षा, प्राचीन EITT SITES Sacred Books of the East Series, Vol. XV.pp. Sly-I. इस पर परिशिष्ट प्रकरण में आधिक विचार किया गया है। +