आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । १४३ गया है कि मूलभूत परमात्मरूपी तत्व के ज्ञान से बुद्धि किस प्रकार शुद्ध हो जाती है। अतएव इस उपपत्ति को अच्छी तरह समझ लेने के लिये हमें भी उन्हीं मार्गों का अनुसरण करना चाहिये । उन मार्गों में से, ब्रह्माण्ड-ज्ञान अथवा क्षर-अक्षर- विचार का विवेचन अगले प्रकरण में किया जायगा । इस प्रकरण में, सदसद्विवेक- देवता के यथार्थ स्वरूप का निर्णय करने के लिये, पिण्ड-ज्ञान अथवा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो विवेचन भारम्भ किया गया था वह अधूरा ही रह गया है, इसलिये अब उसे पूरा कर लेना चाहिये। पाचभौतिक स्थूल देह, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, इन ज्ञानेन्द्रियों के शब्द-स्पर्श-रूप-सनांधात्मक पाँच विषय, संकल्प-विकल्पात्मक मन और व्यव- सायात्मक बुद्धि-इन सब विपयों का विवेचन हो चुका । परन्तु, इतने ही से, शरीरसम्बन्धी विचार की पूर्णता हो नहीं जाती। मन और बुद्धि, केवल विचार के साधन अथवा इन्द्रियाँ हैं। यदि इस जड़ शरीर में, इनके अतिरिक्त, प्राणरूपी चेतना अर्थात हलचल न हो, तो मन और बुद्धि का होना न होना बरावर ही- अर्थात् किसी काम का नहीं समझा जायगा । अर्थात्, शरीर में, उपयुक्त वातों के अतिरिक्त, चेतना नामक एक और तत्त्व का भी समावेश होना चाहिये । कभी कभी चेतना शब्द का अर्थ 'चैतन्य ' भी हुआ करता है परन्तु स्मरण रहे कि यहाँ पर चेतना शब्द का अर्थ ' चैतन्य नहीं माना गया है। वरन · जड़ देह में दृग्गोचर होनेवाली प्राणों की हलचल, चेष्टा या जीवितावस्था का व्यवहार ' सिर्फ यही अर्थ विवक्षित है। जिस चित्-शक्ति के द्वारा जड़ पदार्थों में भी हलचल अथवा व्यापार उत्पन्न हुआ करता है उसको चैतन्य कहते हैं और अब, इसी शकि के विषय में विचार करना है । शरीर में गोचर होनेवाले. सजीवता के व्यापार अथवा चेतना के अतिरिक्त, जिसके कारण 'मेरा-तेरा' यह भेद उत्पन्न होता है, वह भी एक भिन्न गुण है। इसका कारण यह है कि, उपर्युक्त विधे- चन के अनुसार पुद्धि सार-प्रसार का विचार करके केवल निर्णय करनेवाली एक इन्द्रिय है, अतएव मेरा-तेरा ' इस भेद-भाव के भूल को अर्थात् अहंकार को उस बुद्धि से पृथक् ही मानना पड़ता है। इच्छाद्वेष, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व मन ही के गुण है; परन्तु नैय्यायिक इन्हें आत्मा के गुण समझते हैं, इसी लिये इस भ्रम को हटाने के अर्थ वेदान्तशास्त्र ने इनका समावेश मन ही में किया है। इसी प्रकार जिन मूल तत्वों से पंचमहाभूत उत्पन्न हुए हैं उन प्रकृतिरूप तत्त्वों का भी समावेश शरीर ही में किया जाता है (गी. १३. ५.६) । जिस शक्ति के द्वारा ये सब तत्व स्थिर रहते हैं वह भी इन सब से न्यारी है। उसे पति कहते हैं (गी. १६.३३)। इन सब बातों को एकत्र करने से जो समुच्चय रूपी पदार्थ बनता है उसे शास्त्रों में सविकार शरीर अथवा क्षेत्र कहा है और, व्यवहार में, इसी को चलता-फिरता (सविकार) मनुष्य-शरीर अथवा पिंड कहते हैं। क्षेत्र शब्द की यह व्याख्या गीता के आधार पर की गई है। परन्तु इच्छा-द्वेप आदि गुणों की गणना करते समय कभी
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