गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । इस व्याख्या में कुछ हेरफेर भी कर दिया जाता है। उदाहरणार्थ,शांति पर्व के जनक- सुलभा-संवाद (शां. ३२०) में, शरीर की व्याख्या करते समय, पंचकर्मेन्द्रियों के वदले काल, सदसद्भाव, विधि, शुक्र और यल का समावेश किया गया है । इस गणना के अनुसार पंचकर्मेन्द्रियों को पंचमहाभूतों ही में शामिल करना पड़ता है। और, यह मानना पड़ता है कि, गीता की गणना के अनुसार, काल का अम्त- मांव आकाश में और विधि-शुक्र-वल आदिकों का अन्तर्भाव अन्य महाभूतों में किया गया है। कुछ भी हो इसमें संदेह नहीं कि क्षेत्र शब्द से सब लोगों को एक ही अर्थ अभिप्रेत है; अर्थात्, मानसिक और शारीरिक सब च्या और गुणों का प्राणरूपी विशिष्ट चेतनायुक्त जो समुदाय है उसी को क्षेत्र कहते हैं । शरीर शब्द का उपयोग नृत देह के लिये भी किया जाता है। अतएव इस विषय का विचार करते समय क्षेत्र' शब्द ही का अधिक उपयोग किया जाता है, क्योंकि वह शरीर शब्द से भिन्न है। क्षेत्र' का मूल अर्थ खेत है; परंतु प्रस्तुत प्रकरण में 'सविकार और सजीव मनुष्य देह' के अर्थ में उसका लाक्षणिक उपयोग किया गया है। पहले जिसे हमने बड़ा कारखाना ' कहा है, वह यही 'सविकार और सजीव मनुष्य देह' है। बाहर का माल भीतर लेने के लिये और कारखाने के भीतर का माल वाहर भेजने के लिये, ज्ञानेंद्रियाँ उस कारखाने के यथाक्रम द्वार हैं और मन, बुद्धि, अहंकार एवं चेतना उस कारखाने में काम करनेवाले नौकर हैं। ये नौकर जो कुछ व्यवहार करते हैं या कराते हैं, उन्हें इस क्षेत्र के व्यापार, विकार अथवा धर्म कहते हैं। इस प्रकार क्षेत्र ' शब्द का अर्थ निश्चित हो जाने पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि, यह क्षेत्र अथवा खेत है किसका ? इस कारखाने का कोई स्वामी भी है या नहीं ? आत्मा शब्द का उपयाग बहुधा मन, अंतःकरण तथा स्वयं अपने लिये भी किया जाता है; परन्तु उसका प्रधान अर्थ क्षेत्रज्ञ' अथवा 'शरीर का स्वामी' ही है। मनुष्य के जितने व्यापार हुआ करते हैं-चाहे वे मानसिक हों या शारीरिक- वे सब उसकी बुद्धि आदि अन्तरिद्रियाँ, चक्षु आदि ज्ञानेंद्रियाँ, तथा इस्त पाद आदि कमेद्रियाँ ही किया करती हैं। इन्द्रियों के इस समूह में बुद्धि और मन सब से श्रेष्ठ है । परन्तु, यधपि वे श्रेष्ठ हैं, तथापि अन्य इन्द्रियों के समान वे भी अन्त में जड़ देह या प्रकृति के ही विकार हैं (अगला प्रकरण देखो) । अतएव, यद्यपि मन और बुद्धि सब में श्रेष्ठ हैं, तथापि उनसे अपने अपने विशिष्ट व्यापार के अति- रिक्त और कुछ करते धरते नहीं बनता; और न कर सकना संभव ही है । यह सच है कि, मन चिंतन करता है और बुद्धि निश्चय करती है। परन्तु इस से यह निश्चय नहीं होता कि, इन कामों को बुद्धि और मन किस के लिये करते हैं, अथवा भिन्न भिन्न समय पर मन और बुद्धि के जो पृथक् पृथक् व्यापार हुआ करते हैं, उनका एकत्र ज्ञान होने के लिये नो एकता करनी पड़ती है वह एकता या एकीकरण कौन करता है, तथा उसी के अनुसार आगे सब इन्द्रियों को अपना
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