आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार। १४५ अपना व्यापार तदनुकूल करने की दिशा कौन दिखाता है। यह नहीं कहा जा सकता, कि यह सच काम मनुष्य का जड़ शरीर ही किया करता है । इसका कारण यह है कि, जय इस शरीर की चेतना अथवा सब हलचल करने के व्यापार नष्ट हो जाते हैं, तब जड़ शरीर के बने रहने पर भी वह इन कामों को नहीं कर सकता। और, जड़ शरीर के घटकावयव जैसे मांस, स्नायु इत्यादि तो अन्न के परिणाम हैं तथा वे हमेशा जीर्ण हो कर नये हो जाया करते हैं इसलिये, 'कल जिस मैंने अमुक एक बात देखी थी, वही मैं आज दूसरी देख रहा हूँ इस प्रकार की एकत्व- बुद्धि के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि वह नित्य बदलनेवाले जड़ शरीर का ही धर्म है। अच्छा; अब जड़ देह को छोड़ कर चेतना को ही स्वामी माने तो यह आपत्ति देख पड़ती है कि, गाढ निद्रा में प्राणादि वायु के श्वासोच्छ्वास प्रभृति व्यापार अथवा रुधिराभिसरण आदि व्यापार, अर्थात् चेतना, के रहते हुए भी, मैं' का ज्ञान नहीं रहता (वृ. २. १. १५-१८)। अतएव यह सिद्ध होता है कि चेतना, अथवा प्राण प्रभृत्ति का ब्यापार, भी जड़ पदार्थ में उत्पन होनेवाला एक प्रकार का विशिष्ट गुण है वह इन्द्रियों के सब ज्यापारों की एकता करनेवाली मूल शक्ति, या स्वामी, नहीं है (कळ. ५. ५। मेरा' और 'तेरा' इन संबंध- कारक के शब्दों से केवल अहंकाररूपी गुणों का बोध होता है। परन्तु इस बात का निर्णय नहीं होता कि 'ई' अर्थात् ' मैं ' कौन हूँ। यदि इस मैं' या मई को केवल भ्रम मान लें, तो प्रत्येक की प्रतीति अथवा अनुभव पैसा नहीं है और इस अनुभव को छोड़ कर किसी अन्य यात की कल्पना करना मानो श्रीसमर्थ रामदास स्वामी के निम्न वचनों की सार्थकता ही कर दिखाना है-"प्रतीति के विना कोई भी कथन अच्छा नहीं लगता। वह कपन ऐसा होता है जैसे कुत्ता मुँह फैला कर रो गया हो!" (दा.६.५. १५) । अनुभव के विपरीत इस बात को मान लेने पर भी इन्द्रियों के व्यापारों की एकता की, उपपत्ति का कुछ भी पता नहीं लगता ! कुछ लोगों की राय है कि, 'मैं कोई मिल पदार्थ नहीं है किन्तु 'क्षेत्र शब्द में जिन-मन, बुद्धि, चेतना, जड़ देह श्रादि-तों का समावेश किया जाता है, उन सब के संघात या समुच्चय को ही मैं ' कहना चाहिये । अब यह बात हम प्रत्यक्ष देखा करते हैं कि, लकड़ी पर लकड़ी रख देने से ही सन्दूक नहीं बन जाती, अथवा किसी घड़ी के सब कील-पुर्जी को एक स्थान में रख देने से ही उसमें गति उत्पन्न नहीं हो जाती। अतएव, यह नहीं कहा जा सकता कि केवल संघात या समुच्चय से ही कर्तृत्व उत्पन्न होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि, क्षेत्र के सब व्यापार सिड़ी सरीखे नहीं होते; किन्तु उनमें कोई विशिष्ट दिशा, उद्देश या हेतु रहता है। तो फिर क्षेत्ररूपी कारखाने में काम करनेवाले मन, बुद्धि आदि सब नौकरों को इस विशिष्ट दिशा या उद्देश की ओर कौन कौन प्रवृत्त करता है? संघात का अर्थ केवल समूह है। कुछ पदार्थों को एकत्र करके उनका एक समूह बन जाने पर भी विलग न होने के लिये उनमें धागा डालना पड़ता है, नहीं तो वे फिर कभी गी. र.१९
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