पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१९४

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कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षरविचार । पड़ते हैं वे गुण, जिससे यह वस्तु उत्पन्न हुई है उसमें, (अर्थात् कारण में) सूक्ष्म रीति से तो अवश्य होने ही चाहिये (सां. का. ६) । वौद और काणाद यह मानते हैं कि, एक पदार्थ का नाश हो कर उससे दूसरा नया पदार्थ बनता है। उदाहरणार्थ, वीज का नाश होने के बाद उससे अंकुर और अंकुर का नाश होने के बाद उससे पेड़ होता है। परन्तु सांख्यशास्त्रियों और वेदान्तियों को यह मत पसंद नहीं है। वे कहते हैं कि वृक्ष के वीज में जो 'द्रव्य ' हैं उनका नाश नहीं होता; किन्तु वही द्रव्य जमीन से और वायु से दूसरे द्रव्यों को खींच लिया करते हैं और इसी कारण से बीज को अंकुर का नया स्वरूप या अवस्था प्राप्त हो जाती है (वेसू. शांभा. २. १. १८)। इसी प्रकार जब लकड़ी जलती है तब उसके ही राख या धुआँ आदि, रूपान्तर हो जाते हैं। लकड़ी के मूल- द्रव्यो । का नाश हो कर धुआँ नामक कोई नया पदार्थ उत्पन्न नहीं होता.। छांदोग्योपनिपदू (६.२.२) में कहा है " कथमसतः सजायेत "जो है ही नहीं उससे, जो है वह, कैसे प्राप्त हो सकता है ? जगत् के मूल कारण के लिये 'असत्' शब्द का उपयोग कभी कभी उपनिपदों में किया गया है (छां. ३. १६. १. २.७.१), परन्तु यहाँ प्रसत् ' का अर्थ 'प्रभाव नहों' नहीं है। किन्तु वेदांतसूत्रों ( २. १. १६, १७) में यह निश्चय किया गया है कि, 'असत्' शब्द से केवल नामरू- पात्मक व्यक्त स्वरूप, या अवस्था, का अभाव ही विवक्षित है । दूध से ही दही बनता है, पानी से नहीं; तिल से ही तेल निकलता है, बालू से नहीं; इत्यादि प्रत्यक्ष देखे हुए अनुभवों से भी यही सिद्धान्त प्रगट होता है । यदि हम यह मान लें कि 'कारण मैं जो गुण नहीं हैं वे 'कार्य में स्वतन्त्र रीति से उत्पन होते हैं तो फिर हम इसका कारण नहीं बतला सकते कि पानी से दही क्यों नहीं बनता । सारांश यह है कि, जो मूल में है ही नहीं उससे, अभी जो अस्तित्व में है वह, उत्पन नहीं हो सकता। इसलिये सांख्य वादियों ने यह सिद्धान्त निकाला है कि, किसी कार्य के वर्तमान द्रव्यांश और गुण मूलकारण, में भी किसी न किसी रूप से रहते ही हैं। इसी सिद्धान्त को सत्कार्य-वाद ' कहते हैं। अर्वाचीन पदार्थ- विज्ञान के ज्ञातात्रों ने भी यही सिद्धान्त हूँढ़ निकाला है कि पदार्थों के जड़ दन्य और कर्म-शक्ति दोनों सर्वदा मौजूद रहते हैं किसी पदार्थ के चाहे जितने रूपान्तर हो जाये तो भी अंत में सृष्टि के कुल द्रव्यांश का और कर्म-शक्ति का जोड़ हमेशा एक सा बना रहता है। उदाहरणार्थ, जब हम दीपक को जलता देखते हैं तय तेल भी धीरे धीरे कम होता जाता है और अन्त में वह नष्ट हुआ सा देख पड़ता है। यद्यपि यह सब तेल जल जाता है, तथापि उसके परमाणुओं का बिलकुल ही नाश नहीं हो जाता। उन परमाणुओं का अस्तित्व धुएँ या काजल या अन्य सूक्ष्म द्रव्यों के रूप में बना रहता है। यदि हम इन खूक्ष्म द्रव्यों को एकत्र करके तौलें तो माजूम होगा कि उनका तौल या वज़न, तेल और तेल के जलते समय उसमें मिले हुए वायु के पदार्थों के वज़न के बराबर होता है । अब तो यह भी सिद्ध