पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२०७

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गीतारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र णार्थ, सांख्य-वादियों के प्रकृति पुरुप भेद का ही, गीता के १३ वें अध्याय में वर्णन है (गी. १३.१६-३४ा परन्तु वहाँ प्रकृति' और 'पुरुष' शब्दों का उपयोग क्षेत्र और क्षेत्र के अर्थ में हुआ है। इसी प्रकार के अध्याय में त्रिगु. शातीत अवस्या का वर्णन (गी. 12. २२-२७) भी उस सिद्ध पुरुष के विषय में किया गया है जो विगुणात्मक माया के फंदे से छूट कर उस परमात्मा को पहचा- नता है कि जो प्रकृति और पुरुष के भी परे है। यह वर्णन सांख्य-वादियों के स सिद्धान्त के अनुसार नहीं है जिसके द्वारा वे यह प्रतिपादन करते हैं, कि प्रकृति' और 'पुरुष' दोनों पृथक पृथक तत्व हैं और पुरुष का 'कैवल्य' ही सिगुणातीत अवस्था है। यह भेद भागे अध्यात्म-प्रकरण में अच्छी तरह समझा दिया गया है। परन्तु, गीता में यद्यपि अध्यात्ल पक्ष ही प्रतिपादित किया गया है, तथापि आध्यात्मिक तवों का वर्णन करते समय भगयान् श्रीकृष्ण ने सांख्य परि- मापा का और युक्तिवाद का हर जगह उपयोग किया है, इसलिये संभव है कि गीता पढ़ते समय कोई यह समझ बैठे कि गीता को सांस्य-वादियों के ही सिद्धान्त ग्राह्य है। इस क्रम को हटाने के लिये ही सांख्यशास्त्र और गीता के तत्-सदृश सिद्धान्तों का. भेद फिरले यहाँ बतलाया गया है। वेदान्तसूत्रों के भाग्य में श्री- शंकराचार्य ने कहा है कि उपनिपदों के इस अद्वैत सिद्धान्त को न छोड़ कर, कि "प्रकृति और पुरुष के परे इस जगत् का परम्रलरूपी एक ही मूलतच है और उसी से प्रकृति-पुरुष आदि सब सृष्टि की नी उत्पत्ति हुई है," सांच्यशाल के शेप सिद्धान्त हमें अन्नाह नहीं हैं (सू. शां. ना, २.१.३.)। यही यात गीता के उपपादन के विषय में भी चरितार्थ होती है। !