पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२१६

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विश्व की रचना और संहार। १७७ या उपाय नहीं हैं। इन पाँच गुणों में से प्रत्येक के अनेक भेद हो सकते हैं। उदा- हरणार्थ, यद्यपि 'शब्द' गुण एक ही है तथापि उसके छोटा, मोटा, कर्कश, महा, फटा हुआ, कोमल, अथवा गायनशास्त्र के अनुसार निषाद, गांधार, पड्ज, आदि, और व्याकरणाशाख के अनुसार कंन्य, तालव्य, प्रौव्य आदि अनेक प्रकार हुआ फरते हैं। इसी तरह यधपि 'रूप' एक ही गुण है तथापि उसके भी अनेक भेद हुमा करते हैं, जैसे सफेद, काला, नीला, पीला, हरा नादि। इसी तरह यद्यपि रस' या 'रुचि' एक ही गुगा है तथापि उसके खहा, मीठा, तीखा, कटुवा, खारा मादि अनेक भेद हो जाते हैं, और, 'मिठास' यद्यपि एक विशिष्ट रुचि है तथापि हम देखते हैं कि गजे का मिठास, दूध का मिठास, गुड़ का मिठास और शफर का मिठास भिन्न भिन्न होता है तथा इस प्रकार उस एक ही मिठास' के अनेक भेद हो जाते हैं। यदि मिन भिन्न गुणों के भिक्ष मिन मिश्रणों पर विचार किया जाय तो यह गुगा-चैचित्र्य अनन्त प्रकार से अनन्त हो सकता है। परंतु, चाहे जो हो, पदार्थों के भूल-गुण पाँच से कमी अधिक हो नहीं सकते; क्योंकि इंद्रियाँ केवल पाँच हैं और प्रत्येक को एक ही एक गुण का बोध हुमा करता है। इसलिये साण्यों ने यह निश्चित किया है कि, यद्यपि केवल शब्दगुण के अथवा केवल स्पर्शगुण के पृथक् पृथक्, यानी दूसरे गुणों के मिश्रण-रहित, पदार्थ हमें देख न पड़ते हों, तथापि इसमें संदेह नहीं कि मूल प्रकृति में निरा शब्द, निराम्पर्श, निरा रूप, निरा रस, और निरा गंध पति शब्दतन्मात्र, पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र, रसतन्मात्र भौरगंधतम्मान ही है अर्थात् मूल प्रकृति के यही पाँच भिन्न भिन्न सक्षम तन्मानविकार अथवा द्रव्य निःसंदेह हैं। प्रागे इस बात का विचार किया गया है कि, पंचतन्मानानों अथवा उनसे उत्पन्न होनेवाले पंचमहाभूतों के सम्बन्ध में उपनिषत्कारों का कथन क्या है। इस प्रकार निरिद्रिय-सृष्टि का विचार करके यह निश्चित किया गया, कि उस में पाँच ही सूक्ष्म मूलतत्व हैं और जब हम सेन्द्रिय-सृष्टि पर दृष्टि डालते हैं तब भी यही प्रतीत होता है, कि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, और मन, हन ग्यारह इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक इन्द्रियाँ किसी के भी नहीं हैं। स्थूल देह में हाथ-पैर भादि इंद्रियाँ यथपि स्थूल प्रतीत होती है तथापि, इनमें से प्रत्येक की जड़ में किसी मूल सूक्ष्म तत्व का अस्तित्व माने पिना, इन्द्रियों को मित्रता का यथो- चित कारण मालूम नहीं होता । पश्चिमी श्राधिभौतिक उत्क्रान्ति-वादियों ने इस बात की खूब चर्चा की है। वे कहते हैं कि मूल के अत्यंत छोटे और गोलाकार जन्तुओं में सिर्फ स्वचा' ही एक इन्द्रिय होती है। और इस त्वचा से ही अन्य इन्द्रियाँ क्रमशः उत्पन्न होती हैं। उदाहरणार्थ, मूल जंतु की त्वचा से प्रकाश का संयोग होने पर आँख उत्पन्न हुई. इत्यादि । श्राधिभौतिक-वादियों का यह तत्व, कि प्रकाश आदि के संयोग से प्यूल इन्द्रियों का प्रादुर्भाव होता है। सांख्यों को भी पास है। महाभारत (शा. २१३. १६) में, सांख्य प्रक्रिया के अनुसार इन्द्रियों के प्रादुर्भाव का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है। गी, र. २३ .