पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२५५

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२१६ गीतारहस्यं अथवा कर्मयोगशास्त्र। और 'कान' इत्यादि भिन्न भिन्न नाम दिया करता है। भिन्न भिन्न समय पर पदार्थों को जो इस प्रकार नाम दिये जाते है टन नामों को, तथा पदार्थों की जिन मिन मिन्न आकृतियों के कारण वे नाम बदलते रहते हैं उन आकृतियों को उपनिषदों में 'नाम रूप ' कहते हैं और इन्हीं में अन्य सव गुणों का भी समावेश कर दिया जाता है (छां.३ और वृ. १.४.७) 1 और इस प्रकार समावेश होना ठीक भी है क्योंकि कोई भी गुण लीजिये, उसका कुछ न कुछ नाम या रूप अवश्य होगा। यद्यपि इन नाम-ल्पों में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहे तथापि कहना पड़ता है कि इन नाम-रूपों के मूल में आधारभूत कोई तस्त्र या द्रव्य है जो इन नाम रूपों से भिन्न है पर कभी बदलता नहीं-जिस प्रकार पानी पर तरजें होती हैं, उसी प्रकार ये सव नाम-रूप किसी एक ही मूलद्रव्य पर तरङ्गों के समान है। यह सच है कि हमारी इन्द्रियाँ नाम-रूप के अतिरिक्त और कुछ भी पहचान नहीं सकती; अतएव इन इन्द्रियों को उस मूलद्रव्य का ज्ञान होना सम्भव नहीं कि जो नाम-रूप से भिन्न हो परन्तु उसका आधारभूत है । परन्तु सारे संसार का आधारभूत यह तब भले ही अन्यक्त हो अर्थात् इन्द्रियों से न जाना जा लके; तथापि हमको अपनी बुद्धि से यही निश्चित अनुमान करना पड़ता है, कि वह सत् है अर्थात् वह सचमुच सर्व काल, सव नाम-रूपों के मूल में तथा नाम-रूपों में भी निवास करता है, और उसका कभी नाश नहीं होता, क्योंकि यदि इन्द्रियगोचर नामरूपों के अतिरिक्त मूलतत्त्व को कुछ मानें ही नहीं तो फिर 'कड़ा,' 'कान' आदि भिन्न भिन्न पदार्थ हो जावेंगे; एवं इस समय हमें जो यह ज्ञान हुआ करता है कि वे सब एक ही धातु के, सोने के बने हैं। उस ज्ञान के लिये कुछ भी आधार नहीं रह जावेगा। ऐसी अवस्था में केवल इतना ही कहते बनेगा कि यह 'कड़ा' है, यह कहन' है। यह कदापि न कह सकेंगे कि कड़ा सोने का है और कान भी सोने का है, अतएव न्यायतः यह सिद्ध होता है, कि 'कड़ा सोने का है, कान लाने का है, इत्यादि वाक्यों में है' शब्द से जिस सोने के साथ नामरूपात्मक 'कडे' और 'कान' का सम्बन्ध जोड़ा गया है, वह सोना केवल शशश्वत् अभावरूप नहीं है, किन्तु वह उस द्रव्यांश का ही वोधक है कि जो सारे आभूपों का आधार है। इसी न्याय का उपयोग सृष्टि के सारे पदार्थों में करें तो सिद्धान्त यह निकलता है कि पत्थर, मिट्टी, चाँदी, लोहा, लकड़ी, इत्यादि अनेक नाम-रूपा. त्मक पदार्थ, जो नज़र आते हैं वे, सब किसी एक ही द्रव्य पर भिन्न भिन्न नाम- रूपों का मुलम्मा या गिलट कर, उत्पन्न हुए हैं। अर्थाव सारा भेद केवल नाम-रूपों का है, मूलद्रव्य का नहीं, भिन्न मिन नाम-रूपों की जड़ में एक ही द्रव्य नित्य निवास करता है। 'सब पदार्थों में इस प्रकर से नित्य रूप से सदैव रहना'- संस्कृत में सत्ता-सामान्यत्व' कहलाता है। वेदान्तशास्त्र के उक्त सिद्धान्त को ही कान्ट आदि अर्वाचीन पश्चिमी तत्त्व. ज्ञानियों ने भी स्वीकार किया है। नाम-रूपात्मक जगत् की जड़ में, नाम-रूपों से