पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३०३

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२६४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। श्वरस्याऽऽत्मभूते इवाऽविद्याफल्पिते नामरूपे तत्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीये संसार- प्रपञ्चत्रीजभूते लपंजस्येवरस्य 'माया' 'शक्ति प्रकृति तिति च श्रुतिस्मृत्योरभि- लप्यते " (वैसू. शांभा. २. १. १४)। इसका भावार्थ यह है-"(इन्द्रियों के) अशान से मूल ग्रह में कल्पित किये हुए नाम-रूप को ही श्रुति और स्मृति-अन्यों में सर्वज्ञ ईश्वर की 'माया', 'शक्ति' अथवा 'प्रकृति' कहते हैं। ये नाम-रूप सर्वज्ञ परमेश्वर के प्रात्मभूत से जान पड़ते हैं, परन्तु इनके जड़ होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि ये परब्रह्म से भिन्न हैं या अमित (तस्वान्यत्व), और यही जड़ सृष्टि (श्य) के विस्तार के मूल हैं;" और " इस माया के योग से ही यह चष्टि परमेश्वलनिर्मित देख पढ़ती है. इस कारण यह माया चाहे विनाशी हो, तयापि श्य-सृष्टि की उत्पत्ति के लिये आवश्यक और अत्यन्त उपयुक्त है तथा इसी को उपनिषदों में अध्यक्तः, आकाश, अनर इत्यादि नाम दिये गये हैं" (वेस्. शांभा. १.४.३)। इससे देख पढ़ेगा कि चिन्मय (पुरुष) और अचंतन माया (प्रकृति) इन दोनों तच्चों को सांख्य-वाही स्वयंभू, स्वतन्त्र और अनादि मानते हैं। पर माया का अनादित्व यद्यपि वेदान्ती एक तरह से स्वीकार करते हैं, क्यापि यह उन्हें मान्य नहीं कि माया स्वयंभू और स्वतंत्र है और इसी कारण संसारात्मक माया का वृक्षरूप से वर्णन करते समय गीता (५.३) में कहा गया है कि 'न रूपमत्यैह तयोपलभ्यते नान्तो न चादिन च संप्रतिष्टा-इस संसार वृक्ष काल्प,चन्त, आदि, मूल अथवा और नहीं मिलता। इसी प्रकार तीसरे अध्याय में जो ऐसे वर्णन हैं कि कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि' (३. १५)-प्रक्ष से कम उत्पन्न हुमा; 'यक्षः कर्म- समुद्भवः' (३.१४) यज्ञ भी कम से ही उत्पन होता है, अथवा 'सह यहा:- प्रजाः सृष्ट्वा' (३.१०)ब्रह्मदेव ने प्रजा (सृष्टि), यज्ञ (कर्म) दोनों को साथ ही निर्माण किया; इन सब का तात्पर्य भी यही है कि " कर्म अथवा कर्मरूपी यज्ञ और सृष्टि अर्थात् प्रजा, ये सब लाय ही उत्पत हुई हैं। फिर चाहे इस सृष्टि को प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव ले निर्मित हुई कहो अथवा नीमांसकों की नाई यह कद्दो कि उस ब्रह्मदेव ने नित्य वेद-शब्दों से उसको बनाया अर्थ दोनों का एक ही है (मभा.शा. २३१, मनु, १. २१)। सारांश, दृश्य-सृष्टि का निर्माण होने के समय मूल निर्गुण ब्रह्म में जो व्यापार दिख पड़ता है। वही कर्म है । इस व्यापार को ही नाम- रूपात्मक माया कहा गया है और इल मूल कर्म से ही सूर्य-चन्द्र श्रादि सृष्टि के सब पदायों के व्यापार आगे परम्परा से उत्पन्न हुए हैं (वृ. ३.६.६) । ज्ञानी पुरुषों ने अपनी बुद्धि से निश्चित किया है कि संसार के सारे व्यापार का मूलभूत जो यह सृष्टयुत्पत्ति-काल का कर्म अथवा माया है, सो ब्रह्म की ही कोई न कोई अतश्य लीला है, स्वतंत्र वस्तु नहीं है परन्तु ज्ञानी पुरुषों की गति यहाँ पर कठित हो What belongs to mere appearance is necessarily subordina- ted by reason to the nature of the thing in itself." Kant Metaphy sic of Korak (Abbot's trans, in Kant's Theory of Ethics, p. 81).