कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २८७ परन्तु प्रकृति का चक्र हमेशाधूमता ही रहता है जिसके कारण मनुष्य को भी उसके साथ अवश्य ही चलना पड़ेगा (गी. ३. ३३, १८.६०)। परन्तु अज्ञानी जन ऐसी स्थिति में प्रकृति की पराधीनता में रह कर जैसे नाचा करते हैं, वैसा न करके जो मनुष्य अपनी बुद्धि को इन्द्रिय-निग्रह के द्वारा स्थिर एवं शुद्ध रखता है और सृष्टिक्रम के अनुसार अपने हिस्से के (प्राप्त) कमाँ को केवल कर्त्तव्य समझ कर अनासक्त बुद्धि से एवं शांतिपूर्वक किया करता है, वही सच्चा विरक्त है, वही सचा स्थितप्रज्ञ है और उसी को ब्रह्मपद पर पहुँचा हुआ कहना चाहिये (गी. ३. ७४. २१, ५.७-८; १८.१५)। यदि कोई ज्ञानी पुरुष किसी भी व्यावहारिक कर्म को न करके संन्यास ले कर जंगल में जा बैठे; तो इस प्रकार कर्मों को छोड़ देने से यह समझना बड़ी भारी भूल है, कि उसके कर्मों का क्षय हो गया (गी. ३. ४)। इस तत्त्व पर हमेशा ध्यान देना चाहिये, कि कोई कर्म करे या न करे, परन्तु उसके कर्मों का क्षय इसकी बुद्धि की साम्यावस्था के कारण होता है, न कि कर्मों को छोड़ने से या न करने से । कर्म-क्षय का सच्चा स्वरूप दिखलाने के लिये यह उदाहरण दिया जाता है, कि जिस ताह अग्नि से लकड़ी जल जाती है उसी तरह ज्ञान से सब कर्म भस्म हो जाते हैं, परन्तु इसके बदले उपनिषदू में और गीता में दिया गया यह दृष्टान्त अधिक समर्पक है, कि जिस तरह कमलपत्र पानी में रह कर भी पानी से अलिप्त रहता है, उसी तरह ज्ञानी पुरुष को-अर्थात् ब्रह्मार्पण करके अथवा शासक्ति छोड़ कर कर्म करनेवाले को-कर्मों का लेप नहीं होता (बां. ४.१४. ३.गी. ५.१०)। कर्म स्वरूपतः कभी जलते ही नहीं; और न उन्हें जलाने की कोई भावश्यकता है। जब यह बात सिद्ध है कि कर्म नाम-रूप है और नाम रूप दृश्य सृष्टि है, तब यह समस्त दृश्य सृष्टि जलेगी कैसे ? और कदाचित् जल मी जाय, तो सत्कार्य-वाद के अनुसार सिर्फ यही होगा कि उसका नाम-रूप बदल जायगा । नाम-रूपात्मक कर्म या माया हमेशा बदलती रहती है, इसलिये मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार नाम-रूपों में भले ही परिवर्तन कर ले; परन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिये कि वह चाहे कितना ही ज्ञानी हो परन्तु इस नाम-रूपात्मक कर्म या माया का समूल नाश कदापि नहीं कर सकता । यह काम केवल परमेश्वर से ही हो सकता है (वेसू. ४. ४. १७) । हाँ, मूल में इन जड़ कर्मों में भलाई बुराई का जो बीज है ही नहीं और जिसे मनुष्य उनमें अपनी ममत्व बुद्धि से उत्पन्न किया करता है, उसका नाश करना मनुष्य के हाथ में है और उसे जो कुछजलाना है वह यही वस्तु है । सब प्राणियों के विषय में समबुद्धि रख कर अपने सब व्यापारों की इस ममत्वबुद्धि को जिसने जला (नष्ट कर ) दिया है, वही धन्य है, वही कृत. कृत्य और मुक्त है। सब कुछ करते रहने पर भी, उसके सब कर्म ज्ञानामि से दग्ध समझे जाते हैं (गी. ४. १६; १८.५६) । इस प्रकार फर्मों का दग्ध होना मन निर्विषयता पर और ब्रह्मात्मैक्य के अनुभव पर ही सर्वथा अवलम्बित है। अतएव प्रगट है कि जिस तरह भाग कभी भी उत्पन्न हो परन्तु वह दहन करने का अपना
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३२६
दिखावट