पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास। होने के अनन्तर, ज्ञानी पुरुषों के मार्ग का प्रकाशमय होना उचित हो और गीता में उन दोनों मागों को शुरु' और 'कृष्ण' इसी लिये कहा है कि उनका भी अर्थ प्रकाशमय और अन्धकारमय है। गीता में उत्तराया के याद के सोपानों का वर्णन नहीं है । परन्तु यास्क के निरुल में दगवन के शद देवलोक, सूर्य, वैद्युत और मानस पुरुष का वर्णन है (निरक. १४.t); और उपनिषदों में देवयान के विषय में जो वर्णन हैं, उनकी एकवाश्यता करके वेदान्तसूत्र में यह क्रम दिया है कि उत्तरायण के याद संवत्सर, वायुनीक, सूर्य, चन्द्र, विद्युत्, वरुणलाक, इन्द्र- लोक, प्रजापतिलोक और अन्त में ब्रह्मलोक ई (पृ. ५, ६०, ६. २. १५; दां. ५. १०, कापी. १. ३ वेसू. ४.३.५-६)। देवयान चोर पितृयाण मागी के सोपाना या मुक्कामों का वर्णन हो चुका । परतु इनमें जो दिवस, शुक्लपक्ष, उत्तरायण इत्यादि का वर्णन है उनका सामान्य अर्थ कालवाचक होता है, इस लिए स्वाभाविकही यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि क्या देवयान और पितृयाण मागी का काल से कुछ सम्बन्ध है अथवा पहले कभी था या नहीं? यद्यपि दिवस, रात्रि, शुक्लपन इत्यादि शब्दों का अर्थ कालवाचक है। तथापि अप्ति, ज्वाला, वायुलोक, विद्युत् प्रादि जो अन्य सोपान हैं उनका अर्थ कालवाचक नहीं हो सकता और यदि यह कहा जाय कि ज्ञानी पुरुष को दिन अथवा रात के समय मरने पर, मिज भिर गति मिलती है तब तो ज्ञान का कुछ महत्व ही नहीं रह जाता। इसलिये अग्नि, दिवस, उत्तरायण इत्यादि सभी शब्दों को कालवाचक न मान कर वेदान्तसूत्र में यह सिद्धान्त किया गया है, कि ये शब्द इनके अमिमानी देवताओं के लिये कल्पित किये गये हैं तो ज्ञानी और कर्मकांडी पुरुषों के आत्मा को मित मिल मागा ले ब्रह्मलोक और चन्द्रलोक में ले जाते हैं (वेस्. ४. २. १८-२१, ४.३.१) । परन्तु इस में सन्देह है कि भगवद्गीता को यह मत मान्य है या नहीं क्योंकि उत्तरायण के बाद के सोपानों का, कि जो काल. वाचक नहीं हैं, गीता में वर्णन नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि इन मार्गों को यत. लाने के पहले भगवान् ने काल का स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार किया है कि "मैं तुझे वह काल बतलाता हूँ कि जिस काल में मरने पर कर्मयोगी लौट कर आता है या नहीं आता है" (गी. ८.२३); और महाभारत में भी यह वर्णन पाया जाता है कि जब भीष्म पितामह शरशय्या में पड़े ये तय वै शरीरत्याग करने के लिये उत्तरायण की, अर्थात् सूर्य के उत्तर की ओर मुड़ने की, प्रतीक्षा कर रहे थे (भी. ३२०, अनु- 1६७) । इससे विदित होता है कि दिवस, शुरूपक्ष और उत्तरायणकाल ही मृत्यु होने के लिये कभी न कभी प्रशस्त माने जाते थे। ऋग्वेद (१०.८८.५ और वृ. ६.२.१५) में भी देवयान और पितृयाय मागों का जहाँ पर वर्णन ई, वहाँ कालवाचक अर्थ ही विवक्षित है। इससे तथा अन्य अनेक प्रमाणों से हमने यह निश्चय किया है, कि उत्तर गोलार्ध के जिस स्थान में सूर्य क्षितिज पर के महीने तक हमेशा देख पड़ता है, उस स्थान में अर्यात् उचर ध्रुव के पास या मेल्ल्यान में 2