कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २६७ जव पहले वैदिक ऋपियों की बस्ती थी, तय ही से छः महीने का उत्तरायण रूपी प्रकाशकाल मृत्यु होने के लिये प्रशस्त माना गया होगा । इस विषय का विस्तृत विवेचन हमने अपने दूसरे ग्रन्ध में किया है। कारण चाहे कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि यह समझ वहुत प्राचीन काल से चली आती है। और यही समझ देव. यान तथा पितृयाय मागों में-प्रगट न हो तो पर्यायसे ही-अन्तर्भूत हो गई है। अधिक क्या कहें, हमें तो ऐसा मालूम होता है कि इन दोनों मार्गों का मूल इस प्राचीन समझ में ही है। यदि ऐसा न माने तो गीता में देवयान और पितृयाण को लक्ष्य करके जो एक यार 'काल' (गी. ८.२३) और दूसरी बार 'गति' या 'सृति अर्थात् मार्ग (गी. ८, २६, २७) कहा है, यानी इन दो भिन्न भिन्न अथों के शब्दों का जो उपयोग किया गया है, उसकी कुछ उपपत्ति नहीं लगाई जा सकती । वेदान्त- सूत्र के शाकरभाष्य में देवयान और पितृयाण का कालवाचक अर्थ स्मार्त है जो कर्मयोग ही के लिये उपयुक्त होता है, और यह भेद करके, कि सच्चा प्रमज्ञानी उपनिषदों में वर्णित श्रीत मार्ग से, अर्थात् देवताप्रयुक्त प्रकाशमय मार्ग से, ब्रह्म- लोक को जाता है, 'कासवाचक' तथा 'देवतावाचक' अयों की व्यवस्था की गई है (वे. सू. शां. भा. ४.२. १८-२१)। परन्तु मूल सूत्रों को देखने से ज्ञात होता है, कि काल की छावश्यकता न रख उत्तरायणादि शब्दों से देवताओं को कल्पित कर देवयान का जो देवतावाचक अर्थ यादरायणाचार्य ने निश्चित किया है, वही उनके मतानुसार सर्वन अभिप्रेत होगा; और यह मानना भी उचित नहीं है कि गीता में वर्णित मार्ग उपनिषदों की इस देवयान गति को छोड़ कर स्वतंत्र हो सकता है । परन्तु यहाँ इतने गहरे पानी में पैठने की कोई प्रावश्यकता नहीं है। क्योंकि यद्यपि इस विषय में मतभेद हो कि देवयान और पितृयाण के रात्रि उत्तरायण आदि शब्द ऐतिहासिक दृष्टि से मूलारम्भ में कालवाचक थे या नहीं; तथापि यह यात निर्विवाद है, कि आगे यह कालवाचक अर्थ छोड़ दिया गया। अन्त में इन दोनों पदों का यही अर्थ निश्चित तथा रूढ़ हो गया है कि काल की अपेक्षा न रख चाहे कोई किसी समय मरे-यदि वह ज्ञानी हो तो अपने कर्मानुसार प्रकाशमय मार्ग से, और केवल कर्मकांडी हो तो अन्धकारमय मार्ग से परलोक को जाता है। चाहे फिर दिवस और उत्तरायण प्रादि शब्दों से बादरायणाचार्य के कथनानुसार देवता समझिये या उनके लक्षण से प्रकाशमय मार्ग के क्रमशः बढ़ते हुए सोपान समझिये; परन्तु इससे इस सिद्धान्त में कुछ भेद नहीं होता कि यहाँ देवयान और पितृयाण शब्दों का रूढार्थ मार्गवाचक है। परन्तु क्या देवयान और क्या पिढ्याण, दोनों मार्ग शाखोक्त अर्थात् पुण्यकर्म करनेवाले को ही प्राप्त हुआ करते हैं, क्योंकि पितृयाण यद्यपि देवयान से नीचे की श्रेणी का मार्ग है, तथापि वह भी चन्द्रलोक को अर्थात् एक प्रकार के स्वर्गलोक ही को पहुँचानेवाला मार्ग है। इसलिये प्रगट है, कि वहाँ सुख भोगने की पात्रता होने के लिये इस लोक से कुछ न कुछ शात्रोक्त पुण्यकर्म अवश्य ही करना पड़ता गी. र.३०
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