पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । है (गी... २०,२१) जो लोग थोड़ा भी शास्त्रोक्त पुण्यकर्म न करके संसार में अपना समस्त जीवन पापाचरण में बिता देते हैं, वे इन दोनों में से किसी भी मार्ग से नहीं जा सकते । इनके विषय में उपनिषदों में कहा गया है कि ये लोग मरने पर एकदम पशु-पक्षी आदि तिर्यक योनि में जन्म लेते हैं और पारंवार यमलोक अर्थात् नरक में जाते हैं । इसी को ' तीसरा मार्ग कहते हैं (छां. ५, १०.८ कर. २.६, ७), और भगवद्गीता में भी कहा गया है कि निपट पापी अर्थात् प्रासुरी पुरुषों को यही निस्य-गति प्राप्ति होती है (गी. १६. १६-२१, ६. १२, वेसू. ३. १. १२, १३, निरुक १४. ६)। ऊपर इस बात का विवेचन किया गया है कि मरने पर मनुष्य को उसके कर्मा- नुरूप वैदिक धर्म के प्राचीन परम्परानुसार तीन प्रकार की गति किस क्रम से प्राप्त होती है। इनमें से केवल देवयान मार्ग ही मोक्ष-दायक है परन्तु यह मोक्ष क्रमम से अर्थात् अचिरादि (एक के बाद एक, ऐसे कई सोपानों) से जाते जाते अन्त में मिलता है इसलिये इस मार्ग को क्रममुक्ति' कहते हैं, और देहपात होने के अनन्तर अर्थात् मृत्यु के अनन्तर ब्रह्मलोक में जाने से वहाँ अन्त में मुक्ति मिलती है, इसी लिये इसे विदेह-मुक्ति' भी कहते हैं। परन्तु इन सब बातों के अतिरिक शुद्ध अध्यात्मशान का यह भी कथन है कि जिसके मन में ब्रह्म और आत्मा के एकन्व का पूर्ण साक्षात्कार नित्य जागृत है, उसे ब्रह्मप्राप्ति के किये कहीं दूसरी जगह क्यों जाना पड़ेगा ? अथवा उसे मृत्यु-काल की भी वाट क्यों जोहनी पड़ेगी? यह बात सच है कि उपासना के लिये स्वीकृत किये गये सूर्यादि प्रतीकों की अर्थात् सगुण ब्रह्म की उपासना से जो ब्रह्मज्ञान होता है वह पहले पहल कुछ अपूर्ण रहता है, क्योंकि इससे मन में सूर्यलोक या ब्रह्मलोक इत्यादि की कल्पनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और वे ही मरण-समय में भी मन में न्यूनाधिक परिमाण से बनी रहती हैं । अतएव इस अपूर्णता को दूर करके मोक्ष की प्राप्ति के लिये ऐसे लोगों को देवयान मार्ग से ही जाना पड़ता है (वेसू. ४.३१५) क्योंकि, अध्यात्म- शास्त्र का यह अटल सिद्धान्त है कि मरण-समय में जिसकी जैसी भावना या ऋतु हो उसे वैसी ही 'गति' मिलती है (छां. ३. १४.)। परन्तु सगुण उपासना या अन्य किसी कारण से जिसके मन में अपने प्रात्मा और ब्रह्म के बीच कुछ भी परदा या द्वैतभाव (ते. २.७)शेष नहीं रह जाता, वह सदैव ब्रह्म-रूप ही है; अतएव प्रगट है, कि ऐसे पुरुष को ब्रह्म-प्राप्ति के लिये किसी दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं। इसी लिये वृहदारण्यक में याज्ञवल्य ने जनक से कहाँ है कि जो पुरुप शुद्ध ब्रह्मज्ञान ले पूर्ण निष्काम हो गया हो- "ब तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव- सन् ब्रह्माप्यति "-: उसके प्राण दूसरे किसी स्थान में नहीं जाते; किन्तु वह नित्य ब्रह्मभूत है और ब्रह्म में ही लय पाता है (वृ. ४. ४. ६); और वृहदारण्यक तथा कठ, दोनों उपनिषदों में कहा गया है कि ऐसा पुरुष " अन ब्रा समश्नुते (क. ६.१४)- यहाँ का यहाँ ब्रह्म का अनुभव करता