कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य । २६१ है। इन्हीं श्रुतियों के आधार पर शिवगीता में भी कहा गया है, कि मोक्ष के लिये स्थानान्तर करने की कोई आवश्यकता नहीं होती । ब्रह्म कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि जो अमुक स्थान में हो और अमुक स्थान में न हो (छां. ७. २५, मुं. २. २. १)।तो फिर पूर्ण ज्ञानी पुरुष को पूर्ण ब्रह्म-प्राप्ति के लिये उत्तरायण, सूर्यलोक प्रादि मार्ग से जाने की आवश्यकता ही क्यों होनी चाहिये ?" ब्रह्म वेद प्रहाव भवति" (मुं.३. २.६)-जिसने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया, वह तो स्वयं यहीं का यहीं, इस लोक में ही, ब्रह्म हो गया। किसी एक का दूसरे के पास जाना तभी हो सकता है जब 'एक' और 'दूसरा ' ऐसा स्थलकृत या कालकृत भेद शेप हो और यह भेद तो अन्तिम स्थिति में अर्थात् अद्वैत तथा श्रेष्ठ प्रमानुभव में रह ही नहीं सकता। इसलिये जिसके मन की ऐसी नित्य स्थिति हो चुकी है कि “ यस्य सर्वमात्मैवाऽभूत् " (पृ. २. ४. १४), या " सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छां. ३. १४.१), अथवा मैं ही ग्रहा हूँ- “अहं प्रसाऽस्मि" (वृ. १.४.१०), उसे ब्रह्माप्राप्ति के लिये और किस जगह जाना पड़ेगा? वह तो नित्य ब्रह्मभूत ही रहता है। पिछले प्रकरण के अन्त में जैसा हमने कहा है वैसा ही गीता में परम ज्ञानी पुरुषों का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि "अभितो बानिर्वाणं वर्तते विदितात्मना" (गी. ५.२६)-जिसने द्वैत भाव को छोड़ कर आत्मस्वरूप को जान लिया है उसे चाहे प्रारूध-कर्म-क्षय के लिये देहपात होने की राह देखनी पड़े, तो भी उसे मोक्ष-प्राति के लिये कहीं भी नहीं जाना पड़ता, क्योंकि ब्रह्मानि- चाणारूप मोक्ष तो उसके सामने हाथ जोड़े खड़ा रहता है। अथवा तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः" (गी. ५. १६) जिसके मन में सर्व- भूतान्तर्गत प्रक्षात्मैक्यरूपी साम्य प्रतिविम्यित हो गया है, वह (देवयान मार्ग की अपेक्षा न रख) यहीं का यही जन्म-मरण को जीत लेता है अथवा " भूतपृथ- ग्मावमेकस्थमनुपश्यति "-- -जिसकी ज्ञानदृष्टि में समस्त प्राणियों की मिलता का नाश हो चुका और जिसे वे सब एकस्य अर्थात् परमेश्वर-स्वरूप दिखने लगते हैं, वह “ब्रा सम्पद्यते "--ब्रह्म में मिल जाता है (गी. १३.३०) । गीता का जो वचन अपर दिया गया है कि “ देवयान और पितृयाण मार्गों को तत्वतः जाननेवाला कर्मयोगी मोह प्राप्त नहीं होता" (गी. ८.२१), उसमें भी ॥ तत्वतः जाननेवाला " पद का अर्थ “परमावधि के ब्रह्मास्वरूप को पहचाननेवाला" ही विवक्षित है (देखो भागवत. ७. १५.५६) । यही पूर्ण ब्रह्मभूत या परमावधि की मामी स्थिति है और श्रीमच्छंकराचार्य ने अपने शारीरक भाष्य (वेसू. ४.३. १४) में प्रतिपादन किया है, कि यही अध्यात्म- ज्ञान की अत्यन्त पूर्णावस्था या पराकाष्ठा है। यदि कहा जाय कि ऐसी स्थिति प्राप्त होने के लिये मनुष्य को एक प्रकार से परमेश्वर ही हो जाना पड़ता है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। फिर कहने की आवश्यकता नहीं कि इस रीति से जो पुरुष नसभूत हो जाते हैं, वे कर्म-सृष्टि के सब विधि-निषेधों की अवस्था से भी
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