३०० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । परे रहते हैं। क्योंकि उनका प्रामज्ञान सदैव जागृत रहता है, इसलिये जो कुछ वे किया करते हैं वह हमेशा शुद्ध और निष्काम बुद्धि से ही प्रेरित होकर पाप-पुण्य से अलिप्त रहता है। इस स्थिति की प्राप्ति हो जाने पर ब्रह्म-प्राप्ति के लिये किसी अन्य स्थान में जाने की अथवा देह-पात होने की अर्थात् मरने की भी कोई आवश्यकता वहीं रहती, इसलिये ऐसे स्थितप्रज्ञ ब्रह्मनिष्ठ पुरुष को “जीवन्मुक्त" कहते हैं (यो ३.६)। यद्यपि यौद्ध-धर्म के लोग ब्रह्म या श्रात्मा को नहीं मानते, तथापि उन्हें यह बात पूर्णतया मान्य है कि मनुष्य का परम साध्य जीवन्मुक की यह निष्काम अवस्था ही है और इसी तत्त्व का संग्रह उन्होंने कुछ शब्द-भेद से अपने धर्म में किया है (परिशिष्ट प्रकरण देखो)।कुछ लोगों का कथन है कि पराकाष्ठा के निष्कामत्व की इस अवस्था में और सांसारिक कर्मों में स्वाभाविक परस्पर विरोध है, इसलिये जिसे यह अवस्था प्राप्त होती है उसके सब कर्म आप ही आप छुट जाते हैं और वह संन्यासी हो जाता है। परन्तु गीता को यह मत मान्य नहीं है। उसका यही सिद्धान्त है कि स्वयं परमेश्वर जिस प्रकार कर्म करता है उसी प्रकार जीवन्मुक्त के लिये भी निष्काम बुद्धि से, लोकसंग्रह के निमित्त, मृत्यु पर्यन्त सब न्यवहारों को करते रहना ही अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि निष्कामत्व और कर्म में कोई विरोध नहीं है। यह वात अगले प्रकरण के - निरूपण से स्पष्ट हो जायगी । गीता का यह तत्त्व योगवासिष्ठ (६.उ. १६९) में भी स्वक्रित किया गया है।
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