पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३४०

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ग्यारहवाँ प्रकरण । संन्यास और कर्मयोग । संन्यासः कर्मयोगश्च निःशेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते । गीता. ५.२ पिछले प्रकरण में इस बात का विस्तृत विचार किया गया है, कि अनादि कर्म के चार से छूटने के लिये प्राणिमान में एकत्व से रहनवाल परब्रह्म का अनुभवात्मक ज्ञान होना ही एकमान उपाय है। और यह विचार भी किया गया है कि इस अमृतघा का ज्ञान सम्पादन करने के लिये मनुष्य स्वतंत्र है या नहीं, एवं इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये मायावृष्टि के अनित्य व्यवहार अथवा कर्म वह किस प्रकार करे। अन्त में यह सिद्ध किया है, कि बन्धन कुछ कर्म का धर्म या गुगा नहीं है किन्तु मन का है, इसलिये व्यावहारिक कर्मों के फल के बारे में जो अपनी प्रासक्ति होती है उसे ईदिय-निग्रह से धीरे धीरे घटा कर, शुद्ध अर्थात् निष्काम बुद्धि से कर्म करते रहने पर, कुछ समय के बाद साम्यबुद्धिरूप भात्मज्ञान देहेन्द्रियों में समा जाता है और अन्त में पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार इस बात का निर्णय हो गया, कि मोतरूपी परम साध्य अथवा प्राध्यात्मिक पूर्णावस्था की प्राप्ति के लिये किस साधन या उपाय का अवलम्बन करना चाहिये । जब इस प्रकार के बर्ताव से, अर्थात् यथा- शक्ति और यथाधिकार निष्काम कर्म करते रहने से, कर्म का बंधन छूट जाय तथा चित्तशुद्धि द्वारा अन्त में पूर्ण प्रसज्ञान प्राप्त हो जाय, तब यह महत्व का प्रश्न उप- स्थित होता है कि अब आगे अर्थात् सिद्धावस्था में ज्ञानी या स्थितप्रज्ञ पुरुष कर्म ही करता रहे, अथवा प्राप्य वस्तु को पा का कृतकृत्य हो, माया-सृष्टि के सब व्यव- हारों को निरर्थक और ज्ञानविरुद्ध समझ कर, एकदम उन का त्याग कर दे? क्योंकि सब कर्मी को बिलकुल छोड़ देना (कर्मसंन्यास), या उन्हें निष्काम बुद्धि से मृत्युपर्यंत करते जाना (कर्मयोग), ये दोनों पक्ष तर्क दृष्टि से इस स्थान पर संभव होते हैं। और इनमें से जो पक्ष श्रेष्ठ ठहरे उसी की ओर ध्यान देकर पहले से (अर्थात् ." संन्यास और कर्मयोग दोनों निःश्रेयस्कर अर्थात् मोक्षदायक हैं; परंतु इन दोनों में कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग ही अधिक श्रेष्ठ है।" दूसरे चरण के ' कर्मसंन्यास' पद से प्रगट होता है, कि पहले चरण में संन्यास ' शग्द का क्या अर्थ करना चाहिये । गणेश- गीता के चौथे अध्याय के आरंम में गीता के यही प्रश्नोत्तर लिये गये है। वहाँ यह शोक थोड़े शब्दभेद से इस प्रकार आया है.-क्रियायोगो वियोगवाथुमो मोक्षस्य सामने । वयोमध्ये क्रियायोगल्यागातस्य विशिष्यते ॥ .