पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३४१

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३०२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । साधनावस्था से ही) वतःच करना सुविधाजनक होगा, इसलिये उक्त दोनों पक्षों के तारतम्य का विचार किये बिना कर्म और अकर्म का कोई भी आध्यात्मिक विवेचन पूरा नहीं हो सकता । अर्जुन से सिर्फ यह कह देने से काम नहीं चल सकता था, कि पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो जाने पर कमों का करना और न करना एक सा है (गी. ३.८); क्योंकि समस्त व्यवहारों में कर्म की अपेक्षा वृद्धि ही की श्रेष्टता होने के कारण, ज्ञान से जिसकी बुद्धि समस्त भूतों में सम हो गई है, उसे किसी भी कम के शुभाशुभत्व का लेप नहीं लगता (गी. ४. २०, २) । भगवान् का तो उसे यही निश्चित उपदेश था कि युद्ध ही कर-युदयस्व! (गी. २.१८); और इस खरे तथा स्पष्ट उपदेश के समर्थन में लड़ाई करो तो अच्छा, न करो तो अच्छा' ऐसे सन्दिग्ध उत्तर की अपेक्षा और दूसरे कुछ सबल कारणों का बतलाना आवश्यक था। और तो क्या, गीताशास्त्र की प्रवृत्ति यह बतलाने के लियेही हुई है कि, किसी कर्म का भयङ्कर परिणाम दृष्टि के सामने दिखते रहने पर भी बुद्धिमान् पुरुप उसे ही क्यों करें । गीता की यही तो विशेषता है। यदि यह सत्य है, कि कर्म से जन्तु बघता और ज्ञान से मुक्त होता है, तो ज्ञानी पुरुष को कम करना ही क्यों चाहिये? कम-क्षय का अर्थ का का छोड़ना नहीं है, केवल फलाशा छोड़ देने से ही कर्म का क्षय हो जाता है, सब कमों को छोड़ देना शक्य नहीं है, इत्यादि सिद्धान्त यद्यपि सत्य हो तथापि इससे भली भाँति यह सिद्ध नहीं होता, कि जितने कम छुट सकें उतने भी न छोड़े जॉय । और, न्याय से देखने पर भी, यही अर्थ निष्पन्न झोता है क्योंकि गीता ही में कहा है कि चारों ओर पानी ही पानी हो जाने पर जिस प्रकार फिर उसके लिये कोई कुएँ की खोज नहीं करता, उसी प्रकार की से सिद्ध होनेवाली ज्ञानप्राप्ति हो चुकने पर ज्ञानी पुरुष को कम की कुछ मी अपेक्षा नहीं रहती (गी. २.४६) | इसी लिये तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने श्रीकृपा से प्रथम यही पूछा है, कि अपकी सम्मति में यदि कर्म की अपेक्षा निष्काम अथवा साम्यवुद्धि श्रेष्ट हो, तो स्थितप्रज्ञ के समान में भी अपनी बुद्धि को शुद्ध किये लेता हूँ-बल, मेरा मतलव पूरा हो गया; अव फिर भी लड़ाई के इस घोर कर्म में मुझे क्यों फँसाते हो? (गी. ३,१) इसका उचर देते हुए भगवान् ने 'कर्म किसी से भी छुट नहीं सकते' इत्यादि कारण बतला कर, चौथे अध्याय में कर्म का समर्थन किया है । परन्तु सांख्य (संन्याल) और कर्मयोग दोनों ही मार्ग यदि शास्त्रों में बतलाये गये हैं, तो यही कहना पड़ेगा कि, ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर, इनमें से जिसे जो मार्ग अच्छा लगे, उसे वह स्वीकार कर ले । ऐसी दशा में, पाँचवें अध्याय के प्रारम्भ में, अर्जुन ने फिर प्रार्थना की, कि दोनों मार्ग गोलमाल कर के मुझे न वतलाइये त्यपूर्वक मुझे एक यात बतलाइये कि इन दोनों में से अधिक श्रेष्ठ कौन है (गी. ५. १)। यदि ज्ञानोत्तर कर्म करना और न करना एक ही सा है, तो फिर मैं अपनी मर्जी के अनुसार जी चाहेगा तो कर्म कलगां, नहीं तो न करूँगा । यदि कर्म करना ही उसमपन्न हो, वो मुझे