पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३४२

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संन्यास और कर्मयोग। ३०३ उसका कारण समझाइये; तभी मैं आपके कथनानुसार आचरण करूँगा अर्जुन का यह प्रक्ष कुछ अपूर्व नहीं है। योगवासिष्ठ (५.५६.६) में श्रीरामचन्द्र ने वसिष्ठ से और गणेशगीता (४.१) मैं वरेण्य राजा ने गणेशजी से यही प्रश्न किया है। केवल हमारे ही यही नहीं, वरन् यूरोप में जहाँ तत्वज्ञान के विचार पहले पहल शुरू हुए थे, उस ग्रीस देश में भी, प्राचीन काल में, यह प्रश्न उपस्थित हुआ था । यह यात अरिस्टाटल के ग्रन्ध से प्रगट होती है । इस प्रसिद्ध यूनानी ज्ञानी पुरुष ने अपने नीतिशास-सम्बन्धी अन्य के अन्त (१०.७ और ८) में यही प्रश्न उपस्थित किया है और प्रथम अपनी यह सम्मति दी है कि संसार के या राजनीतिक मामलों में जिन्दगी बिताने की अपेक्षा ज्ञानी पुरुष को शांति से तत्व- विचार में जीवन बिताना ही सया और पूर्ण मानन्ददायक है । तो भी उसके अनन्तर लिखे गये अपने राजधर्म-सम्बन्धी अन्य (७.२ और ३) में अरिस्टाटल ही लिखता है कि " कुछ ज्ञानी पुरुप तत्प-विचार में, तो कुछ राजनैतिक कार्यों में, निमप्न देख पड़ते हैं। और यदि पूछा जाय कि इन दोनों मागों में कौन यहुत अच्छा है तो यही कहना पड़ेगा कि प्रत्येक मार्ग अंशतः सचा है। तथापि, कर्म की अपेक्षा प्रकर्म को अच्छा कहनाभूल गक्योंकि, यह कहने में कोई हानि नहीं कि, आनन्द भी तो एक कर्म ही है और सच्ची श्रेयःप्राप्ति भी अनेक अंशों में ज्ञानयुक्त तथा नीतियुक्त की में ही है।" दो स्थानों पर अरिस्टाटल के भिस भिन्न गतों को देखकर गीता के इस स्पष्ट कपन का महत्व पाठकों के ध्यान में आ जायेगा, कि "कर्म ज्यायो अकर्मणः" (गी. ३.८)- अकर्म की अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ है।गत शताब्दी का प्रसिद्ध झंच पण्डित आगस्टस कोट अपने आधिभौतिक तत्त्वज्ञान में कहता है- " यह कहना प्रान्तिमूलक है, कि तत्वविचार ही में निमा रह कर जिन्दगी विताना श्रेयस्कर है । जो तत्वज्ञ पुरुष इस टाके आयुप्यक्रम को प्रशीकार करता है और अपने हाथ से होने योग्य लोगों का कल्याण करना छोड़ देता है उसके विषय में यही कहना चाहिये कि वह अपने प्राप्त साधनों का दुरुपयोग करता है।" विपक्ष में जर्मन तत्ववेत्ता शोपेनहर ने कहा है, कि संसार के समस्त व्यवहार-यहाँ तक कि जीवित रहना भी -दुःखमय हैं, इसलिये तत्त्वज्ञान प्राह कर इन सब कमी का, जितनी जल्दी हो सके, नाश करना ही इस संसार में मनुष्य का सच्चा कर्तव्य है । कोट सन् १८५७ ई० में, और शोपेनहर सन् १८६० ई० में संसार से विदा हुए । शोपेनहर का पन्य जर्मनी में हार्टमैन ने जारी रखा है ।.कहना नहीं होगा, कि स्पेन्सर और मिल प्रभृति अंग्रेज़ तत्वशासनों के मत कोट के ऐसे हैं । परन्तु इन सय के धागे बढ़ कर, हाल ही के ज़माने के प्राधिभौतिक जर्मन पण्डित निशे ने, " And it is equally a mistult to play inactivity abre action for happiness is activity, and tho actions of tho just and wise are tho realization of much that is noble." (Aristotle's Politics, trans, by Jowoll. Vol. 1. p. 219. The italics aro ours ),