पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/३८९

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को एक ३५० गीवारहस्य अयवा कर्मयोगशास्त्र। में उसे ही " वैदिक कर्मयोग " नाम देकर कहा है, कि यह मार्ग मी चतुर्थ आश्रम के समान ही निःश्रेयस्कर अर्थात् मोक्षप्रद है (मनु. १२.८६-८०)। मनु का यह सिद्धान्त याज्ञवल्क्य-स्कृति में भी आया है। इस स्मृति के तौर अध्याय में यतिधर्म का निरूपण हो चुकने पर 'अयवा' पद का प्रयोग करके लिखा है, कि आगे ज्ञाननिष्ट और सत्यवादी गृहस्थ मी (संन्यास न ले कर) मुक्ति पाता है (याज्ञ. ३. २०१ और २०५) । इसी प्रकार यास्क ने भी अपने निरल में लिखा है, कि कर्म छोड़नेवाले तपस्वियों और ज्ञानयुक्त कर्म करनेवाले कर्मयोगियों देवयान गति प्राप्त होती है (नि. १४.६)। इसके अतिरिक, इस विषय में दूसरा प्रमाण धर्मसूत्रकारों का है। ये धर्मसूत्र गद्य में हैं और विद्वानों का मत है किलोकों में रची गई स्मृतियों से ये पुराने होंगे। इस समय इमें यह नहीं देखना है, कि यह मत सही है या गलत । चाहे वह सही हो या गलत इस प्रसंग पर मुख्य यात यह है, कि ऊपर मनु और पानवल्ल्य-स्मृतियों के वचनों में गृहस्या- अम या कर्मयोग का जो महल दिखाया गया है उससे भी अधिक महत्व धर्मसूत्रों में वर्णित है । मनु और याज्ञवल्य ने कर्मयोग को चतुर्थ धानम का विल्स कहा है। पर वौधायन और आपस्तम्ब ने ऐलान कर स्पष्ट कह दिया है, कि गृह स्थाश्रम ही मुख्य है और उसी से आगे अमृतत्व मिलता है । वौधायन धर्मसूत्र में “जायमानो चै ग्राह्मणस्त्रिमित्रणवा जायते जन्म से ही प्रत्येक ग्राह्मण अपनी पीठ पर तीन ऋण ले आता है- इत्यादि तैत्तिरीय संहिता के वचन पहले दे कर कहा है, कि इन ऋणों को चुकाने के लिये यज्ञ-याग-आदि-पूर्वक गृहस्थाश्रम का आश्रय करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोक को पहुँचताई और ब्रह्मचर्य चा संन्यास की प्रशंसा करनेवाले अन्य लोग धूल में मिल जाते हैं (चौ. २.६. ११.३३ और ३४); एवं आपस्तम्बसून में भी ऐसा ही कहा है (आप. २.६.२४.८)। यह नहीं, कि इन दोनों धर्मस्त्रों में संन्यास-श्रावन का वर्णन ही नहीं है। किन्तु उसका भी वर्णन करके गृहस्थानम का ही महत्त्व अधिक माना है। इससे और विशेषतः मनुस्मृति में कर्मयोग को 'वैदिक' विशेषण देने से स्पष्ट सिद्ध होता है, कि मनुमृति के समय में भी कर्मत्यागरूप संन्यास आश्रम की अपेक्षा निष्काम कर्मयोगरूपी गृह- स्थाश्रम प्राचीन समझा जाता था, और मोक्ष की दृष्टि से उसकी योग्यता चनुर्य आत्रम के बराबर ही गिनी नाती थी । गीता के टीकाकारों का ज़ोर संन्यास या कर्मत्याग-युक भक्ति पर ही होने के कारण उपर्युक्त स्मृति-वचनों का उल्लेख उनकी टीका में नहीं पाया जाता । परन्तु उन्हों ने इस और दुर्लक्ष भले ही क्रिया हो, किन्तु इससे कर्मयोग की प्राचीनता वटती नहीं है। यह कहने में कोई हानि नहीं, कि इस प्रकार प्राचीन होने के कारण, स्मृतिकारों को यति-धर्म का विकल, कर्मयोग मानना पड़ा । यह हुई वैदिक कर्मयोग की वात । श्रीकृष्ण के पहले जनक आदि इसी का आचरण करते थे। परन्तु आगे उसमें मगवान् ने मक्ति को भी मिला दिया और उसका बहुत प्रसार किया, इस कारण से ही भागवतधर्म माम प्राप्त