1 संन्यास और फर्मयोग। हो गया है । यद्यपि भगवद्गीता ने इस प्रकार संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को ही अधिक श्रेष्ठता दी है, तथापि कर्मयोगमार्ग को आगे गौणता क्यों प्राप्त हुई और संन्यास-मार्ग का ही बोलवाला क्यों हो गया इसका विचार ऐतिहासिक दृष्टि से आगे किया जावेगा । यहाँ इतना ही कहना है, कि कर्मयोग स्मार्त मार्ग के पश्चात् का नहीं है, वह प्राचीन वैदिक काल से चला आ रहा है। भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में " इति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनि- पत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे " यह जो संकल्प है, इसका मर्म पाठकों के ध्यान में अप पूर्णतया प्रा जावेगा। यह संकल्प बतलाता है, कि भगवान के गाये हुए उप- निपद में अन्य उपनिपदों के समान प्रमविधा तो है ही, पर अकेली ब्रमविया ही नहीं प्रत्युत ब्रह्मविद्या में सांख्य ' और 'योग' (वेदान्ती संन्यासी और वेदान्ती कर्मयोगी) ये जो दो पन्य उपजते हैं उनमें से योग का अर्थात कर्मयोग का प्रति- पादन ही भगवद्गीता का मुख्य विषय है । यह कहने में भी कोई हानि नहीं, कि भगवदीतोपनिपद् कर्मयोग का प्रधान ग्रन्थ है। क्योंकि यद्यपि वैदिक काल से ही कर्मयोग चला आ रहा है, तथापि “ कुर्वनेह कमाणि" (ईश.२), या "प्रारभ्य कर्माणि गुणान्वितानि" (श्वे. ६.४) अथवा "विधा के साथ ही साथ स्वाध्याय शादि कर्म करना चाहिये (ते. १.९), इस प्रकार के कुछ थोड़े से उल्लेखों के अतिरिक्त, उपनिपदों में इस कर्मयोग का विस्तृत विवेचन कहीं भी नहीं किया गया है। इस विषय पर भगवद्गीता ही मुख्य और प्रमाण-भूत ग्रंथ है; और काव्य की दृष्टि से भी यही ठीक जंचता है, कि भारत-भूमि के कर्ता पुरुषों के चरित्र जिस महा- भारत में वर्णित हैं उसी में अध्यात्मशास्त्र को ले कर कर्मयोग की उपपत्ति वतलाई जावे । इस बात का भी अब अच्छी तरह से पता लग जाता है कि प्रस्थानत्रयी में भगवद्गीता का समावेश क्यों किया गया है । यद्यपि उपनिपद् मूलभूत हैं। तो भी उनके कहनेवाले ऋपि अनेक हैं। इस कारण उनके विचार संकीर्ण और कुछ स्थानों में परस्पर-विरुद्ध भी देख पड़ते हैं। इसलिये उपनिषदों के साथ ही साथ, उनकी एकवाक्यता करनेवाले वेदान्तसूत्रों की भी, प्रस्थानत्रयी में गणना करना आवश्यक था । परन्तु उपनिषद् और वेदान्तसूत्र, दोनों की अपेक्षा यदि गीता में कुछ अधिकता न होती, तो प्रस्थानत्रयी में गीता के संग्रह करने का कोई भी कारण न था। किन्तु उपनिपदों का झुकाव प्रायः संन्यास मार्ग की ओर है, एवं विशेषतः उनमें ज्ञानमार्ग का ही प्रतिपादन है और भगवद्गीता में इस ज्ञान को ले कर भक्तियुक्त कर्मयोग का समर्थन है। बस, इतना कह देने से गीता ग्रंथ की अपूर्वता सिद्ध हो जाती है और साथ ही साथ प्रस्थानत्रयी के तीनों भागों की सार्थकता भी व्यक्त हो जाती है । क्योंकि वैदिक धर्म के प्रमाणभूत ग्रंथ में यदि ज्ञान और कर्म (सांख्य और योग) दोनों वैदिक मार्गी का विचार न हुआ होता, तो प्रस्थानत्रयी उतनी अपूर्ण ही रह जाती। कुछ लोगों की समझ है कि जब उपनिपद् सामान्यतः निवृत्तिविषयक हैं, तब गीता का प्रतिविषयक अर्थ
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