संन्यास और फर्मयोग। ३६१ विधां च "३० ईशावास्य का उलिखित ग्यारहवा मन्त्र ही अक्षरशः ले लिया है। और उससे सट कर ही उसके पूर्व में फठ. २.४ और आगे क०. २. ५ ये मंत्र दिये हैं।सांत ये तीनों मंत्र एक ही स्थान पर एफ के पश्चात् एक दिये गये हैं, और पिचला मंत्र ईशावास्य का है। तीनों में विद्या ' शब्द वर्तमान है, इसलिये फटोप- निपद में विद्या शब्द का जो सायं है, यही (ज्ञान) कार्य इंशावास्य में भी लेना चाहिये-मैन्नुपनिपद का ऐसा ही सभिप्राय प्रगट होता है । परन्तु ईशावास्य के शांकरभाष्य में कहा है, कि यदि विद्या प्रात्मज्ञान और अमृत सोक्ष, ऐसे अर्थ ही देशावात्य फे ग्यारहय मन्त में ले लें, तो कहना होगा कि ज्ञान (विधा) और कर्म (अविधा) का ससुचय इस उपनिपद में वर्णित है। परन्तु जय कि यह समु- घय न्याय से शुरू नहीं है, तव विपा-देवतोपासना और अमृत-देवलो, यह गौण अर्घ ही इस स्थान पर लेना चाहिये। " सारांश, प्रगट कि "ज्ञान होने पर संन्यास ले लेना चाहिये, फर्म नहीं करना चाहिये। क्योंकि ज्ञान और पाने का समुचय कभी भी न्यास्य नहीं"-शांकर सम्प्रदाय के इस गुज्य सिन्धान्त के पिरन्द ईशावात्य का मंत्र न होने पाये, इसलिये विधा शब्द का गौण अर्थ स्वीकार कर, समस्त ध्रुतिव- चनों की अपने सम्प्रदाय के धनुरुप एकवाक्यता करने के लिये, शांकरभाष्य में ईशावास्य ग्यारहवें मंगका उपर लिखे अनुसार पर्ष किया गया है। साम्प्रदायिक एष्टि से देखें, तो ये पर्थ महत्व के ही नहीं, प्रत्युत खावश्यक भी हैं। परन्तु जिन्है यह मूल सिद्धान्त ही मान्य नहीं, फि समस्त उपनिपदों में का ही अर्थ प्रतिपादित रहना चाहिये,-दो मार्गों का शुति-प्रतिपादित होना शक्य नहीं, उन्हें अलि- खित मंत्र में विधा और अमृत शब्द के अर्थ बदलने के लिये कोई भी अवश्य- कता नहीं रहती । यह ताच मान लेने से भी, कि परमण एकमेवाद्वितीय है। यह सिद्ध नहीं होता कि उसके ज्ञान होने का उपाय एक से अधिक न रहे । एकक्षी अटारी पर चढ़ने के लिये दो जीने, या एक ही गाँव को जाने के लिये जिस प्रकार दर मार्ग हो सकते हैं, उसी प्रकार मोक्ष-प्राप्ति के उपायों की या निशा की यात है और इसी अभिप्राय ले भगवडीला में स्पष्ट कह दिया है-"लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा।" दो निष्टानों का होगा सम्भवनीय फाइने पर, कुछ उपनिपदों में केवल ज्ञाननिष्ठा का, तो कुप्प में ज्ञान-कर्म-समुचयनिता का वर्णन पाना कुछ अशक्य नहीं है। अर्थात, ज्ञाननिधा का विरोध होता है, इसी से ईशावास्योपनिषद् के शब्द का सरल, स्वाभाविक और स्पष्ट अर्घ छोड़ने के लिये कोई कारण नहीं रह जाता यह कहने के लिये, फिशीमछंकराचार्य का ध्यान सरल प्रर्य की अपेक्षा संन्यासनिष्टा-प्रधान एकवाक्यता की ओर विशेष था, एक और दूसरा कारण भी है। तैत्तिरीय उपनिषद् के शांकरभाष्य (ते. २. ११) में ईशावास्य-मंत्र का इतना भाग दिया है, कि "अविघया मृत्यु ती| विययाऽमृतमश्नुते ", और उसके साथ ही यह मनुवचन भी दे दिया है-"तपसा फल्मपं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते" (मनु. १२, १०४) और इन दोनों वचनों में " पिया " शब्द का एक ही मुख्याध (अर्थात् माज्ञान) गी. र. ४६
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