गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । प्राचार्य ने स्वीकार किया है । परन्तु यहाँ आचार्य का कथन है, कि "तीचा= तैर कर या पार कर." इस पद से पहले मृत्युलोक को तैर जाने की क्रिया पूरी हो लेने पर, फिर (एक साथ ही नहाँ) विद्या से अमृतत्व प्रात होने की क्रिया संघटिन होती है। किन्तु कहना नहीं होगा, कि यह अर्थ पूर्वाध के " उभयं सह" शब्दों के विरुद्ध होता है और प्रायः इसी कारण से ईशाचात्य के शांकरमाप्य में यह अयं छोड़ भी दिया गया हो। कुछ भी हो; ईशावास्य के न्यारहवें मंत्र का शांचर भाष्य में निराला व्याख्यान करने का जो कारण है, यह इसले व्यक हो जाता है। यह कारण साम्प्रदायिक है और नायकत्तों की साम्प्रदायिक दृष्टि स्वीकार न करने वालों को प्रस्तुत भाग्य का यह व्याख्यान मान्य न होगा । यह बात हम भी मंजूर है, कि श्रीमच्छंकराचार्य जैसे अलौकिक ज्ञानी पुरुष के प्रतिपादन किये हुए अर्थ को छोड़ देने का प्रसंग जहाँ तक टले. वहीं तक अच्छा है। पर साम्प्रदायिक दृष्टि त्यागने ले ये प्रसंग तो पायेंगे ही और इसी कारण इमस पहले भी, ईशावास्य- मन्त्र का अर्थ शांकरभाष्य से विभिन्न (प्रयांत जैसा हन कहते हैं, वैसा ही) अन्य भाग्यकारों ने लगाया है । उदाहरणार्थ, बाजसनयी संहिता पर अर्थात् ईशावा- स्योपनिषद् पर नी चाचार्य का जो भाप्य है. उसने “ विद्यां चावियांच" इस मन्त्र का व्याख्यान करते हुए ऐसा अर्थ दिया है कि "विद्या बालज्ञान और अविद्या कसं, इन दोनों के एकीकरण से ही अमृत- अंत मोक्ष मिलना है।" अनन्ताचार्य ने इल पनिपद पर अपने भाष्य में इसी ज्ञानमन्समुच्च- यात्मक अर्थ को स्वीकार कर अन्त में साफ लिख दिया है कि " इस मन्त्र का सिद्धान्त और 'यत्सांख्यः प्राप्यते स्थान तयानरपि गम्यते' (गी. ५.५) गीता के इस वचन का अर्थ एक ही है एवं गीता के इस श्लोक में जो 'सांख्य' और 'योग' शब्द है कम ज्ञान और कर्म के घोतक हैं। इसी प्रकार अपराकदेव ने भी याज्ञवाश्य-स्टति (३. ५७ और २०५) को अपनी टीका में इंशावात्य का न्यारवाँ मन्त्र दे कर, अनन्ताचार्य के समान ही, उसका ज्ञान-कर्म-समुशयात्मक ऋय लिया है। इससे पाठकों के ध्यान में बाजागा, कि आज हम ही नये सिरे से इंशावात्यनिषद् के नन्त्र मा शांकरमान्य सैनिक अर्थ नहीं करते हैं। यह तो हुआ स्वयं ईशायात्वोपनिषद के मल के सन्याय का विचार अद शांकर पूने के आनन्दावन में, ईशावास्योपनिषद् की जो पाथी छपी है, उनमें ये समो मान्य है; और याइवयस्थान पर अपराक को टीका भी आनन्दान में हो पृथक छा है। मो. नेजमूलर ने उपनियो का जो अनुवाद किया है, उसमें ईशावात्य का नामान्तर शांशर माय के अनुसार नग है । उन्हों ने भावान्तर के अन्त में इसके कारण दरलाये हैं| (Sacred Books of the East Series, Vol. I. pp. 314-320 )..ari मन्समूलर साहब को उपलब्ध न हुआ था और उनके ध्यान में यह बात आई हुई देश नहीं पड़ता कि शांकरभाष्य निराला अर्थ श्यों किया गया है।
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४०१
दिखावट