सिद्धावस्था और व्यवहार। ३७३ अपने नीतिशास्त्र के ग्रन्थ में उपपत्ति सहित यही सिन्द कर दिखलाया है। इस प्रकार नीति-नियमों के कभी भी गंदले न होनेवाले मूल झिरने या निर्देपि पाठ (सपा) का इस प्रकार निश्चय हो चुकने पर पाप ही सिद्ध हो जाता है कि नीति- शास्त्र या कर्मयोगशास्त्र के तच्च देखने की जिले अभिलापा हो, उसे इन उदार और निष्कलक्ष सिद्ध पुरुषों के चरित्रों का ही सूक्ष्म अवलोकन करना चाहिये। इसी अभि. प्राय से भगवद्गीता से अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा है, कि " स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत मजेत किम् (गी. २. १५)-स्थितप्रज्ञ पुरुपं का बोलना, पैठना और चलना कैसा होता है। प्रथया " कैलाचीन गुणान् एतान् अतीतो भवति प्रभो किमाचारः " (गी. १४. २१)-पुरुप त्रिगुणातीत दोसे होता है, उसका आचार क्या है और उसको फिस प्रकार पहचानना चाहिः । किसी शराफ के पास सोने का जेवर जैचवाने के लिये ले जाने पर वह अपनी दूकान में रखे हुए १०० टच के सोने के टुकड़े से उसको परख कर जिस प्रकार उसका खरा-खोटापन यतलाता है उसी प्रकार कार्य-कार्य का या धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये स्थितप्रज्ञ का पर्ताव ही कसौटी है, अतः गीता के उक्त प्रश्नों में यही अर्थ गर्भित है कि, मुझे उस कसौटी का ज्ञान करा दीजिये । अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देने में भगवान ने स्थितप्रज्ञ अथवा त्रिगुणातीत की स्थिति के जो वर्णन किये हैं उन्हें कुछ लोग संन्यास मागवाले ज्ञानी पुल्पों के बतलाते हैं। उन्हें वे कर्मयोगियों के नहीं मानते । फारण यह बतलाया जाता है कि संन्यासियों को उद्देश कर ही निराश्रयः । (४. २०) विशेषण का गीता में प्रयोग हुआ है और बारहवें अध्याय में स्थितप्रज्ञ भगव- श्रमों का वर्णन करते समय " सर्वारम्भपरित्यागी' (१२. १६) पूर्व 'अनिकेतः, (१२. १८) इन स्पष्ट पदों का प्रयोग किया गया है। परन्तु निराश्रय अथवा अनि- केत पदों का अर्थ 'घर द्वार छोड़ कर जालों में भटकनेवाला' विवक्षित नहीं है, किन्तु इसका अर्थ “अनाश्रितःकर्मफलं "(६.१) के समानार्थक ही करना चाहिये- तब इसका अर्थ, 'कर्सफल का पात्रय न करनेवाला' अथवा ' जिसके मन में उस फल के लिये ठौर नहीं' इस ढंग का हो जायगा । गीता के अनुवाद में इन श्लोकों के नीचे जो टिप्पणियाँ दी हुई हैं, उनसे यह बात स्पष्ट देख पड़ेगी । इसके अति- रिक्त स्थितप्रज्ञ के वर्णन में ही कहा ई कि “ इन्द्रियों को अपने काबू में रख कर व्यवहार करनेवाला" अर्थात् वह निकाम कर्म करनेवाला होता है (गी. २. ६४), और जिल श्लोक में यह निराश्रय' पद आया है, वहीं यह वर्णन है कि " कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः " अर्थात् समस्त कर्म करके भी वह अलिस रहता है। बारहवें अध्याय के अनिकेत आदि पदों के लिये इसी न्याय का उपयोग करना चाहिये । क्योंकि इस अध्याय में पहले कर्मफल के त्याग की (कर्म- त्याग की नहीं) प्रशंसा कर चुकने पर (गी. १२. १२), फलाशा त्याग कर कर्म फरने से मिलनेवाली शान्ति का दिग्दर्शन कराने के लिये आगे भगवद्भक्त के लक्षण यतलाये हैं और ऐसे ही अठारहवें अध्याय में भी यह दिखलाने के लिये कि
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