३७४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । छासक्ति-विरहित वर्म करने से शान्ति कैसे मिलती है, ब्रह्मभूत पुरुष का पुनः वर्णन आया ई (गी. ८.५०)। अतःव यह मानना पड़ता है कि ये सव वर्णन सन्यास मार्गधालों के नहीं है, किन्तु कर्मयोगी पुरुषों के ही हैं। कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ और संन्यासी स्थितप्रज्ञ दोनों का ब्रह्मज्ञान, शान्ति, श्रात्मौपम्य और निष्काम बुद्धि अथवा नीतितव पृथक पृथक् नहीं हैं । दोनों ही पूर्ण ब्रह्मज्ञानी रहते हैं, इस कारण दोनों की ही मानसिक स्थिति, और शान्ति एक सी होती है। इन दोनों में कर्मदृष्टि से महत्व का भेद यह है कि पहला निरी शान्ति में ही डूबा रहता है और किसी की भी चिन्ता नहीं करता, तथा दूसरा अपनी शान्ति एवं आत्मौपन्य-बुद्धि का व्यवहार में यथासम्भव नित्य उपयोग किया करता है । अतः यह न्याय से सिद्ध है कि व्यवहारिक धर्म-अधर्म-दिवेधन के काम में जिसके प्रत्यक्ष व्यव- हार का प्रमाण मानना है, वह स्थितप्रज्ञ कर्म करनेवाला ही होना चाहिये यहाँ कर्मत्यागी साधु अथवा मितु का टिकना सम्भव नहीं है । गीता में अर्जुन को किये गये समग्र उपदेश का सार यह है कि कमों के छोड़ देने की न तो ज़रूरत है औरन वे छूट ही सकते हैं ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान प्राप्त कर कर्मयोगी के समान व्यवसायात्मक बुद्धि को साम्यावस्था में रखना चाहिये, देसा करने से उसके साथ ही साथ वास- नात्मक-बुद्धि भी सदैव शुद्ध, निर्मम और पवित्र रहेगी, एवं फर्म का बन्धन न होगा। यही कारण है कि इस प्रकरण के प्रारम्भ के श्लोक में, यह धर्मतत्व बतलाया गया है कि " केवल वाणी और मन से ही नहीं, किन्तु जो प्रत्यक्ष कर्म से सब का वही और हितू हो गया हो, उसे ही धर्म कहना चाहिये । जाजलि को उक्त धर्मताच बतलाते समय तुलाधार ने वाणी और मन के साथ ही, बल्कि इससे भी पहले समें कर्म का भी प्रधानता से निर्देश किया है। कर्मयोगी स्थितप्रज्ञ की अथवा जीवन्मुक्त की बुद्धि के अनुसार सब प्राणियों में जिसकी साम्य बुदि हो गई और परार्य में जिसके स्वार्थ का सर्वया लय हो गया, बसको विस्तृत नीतिशास्त्र सुनाने की कोई ज़रूरत नहीं, वह तो आप ही स्वयंप्रकाश अथवा 'बुद्ध' हो गया । अर्जुन का अधिकार इसी प्रकार का था; उसे इससे अधिक उपदेश करने की ज़रूरत ही न थी कि तू अपनी बुद्धि को सम और स्थिर कर, तथा " कर्म को त्याग देने के व्यर्थ भ्रम में न पड़ कर स्थितप्रज्ञ की सी बुद्धि रख और स्वधर्म के अनुसार प्राप्त हुए सभी सांसारिक कर्म किया कर। तथापि यह सान्य-बुद्धिरूप योग सभी को एक ही जन्म में प्राप्त नहीं हो सकता, इसी से साधारण लोगों के लिये स्थितप्रज्ञ के बर्ताव का और थोड़ा सा विवेचन करना चाहिये । परन्तु विवेचन करते समय खूब सरण रहे कि हम जिस स्थितप्रज्ञ का विचार करेंगे, वह कृतयुग के, पूर्ण अवस्था में पहुँचे हुए समाज में रहनेवाला नहीं है, बल्कि जिस समाज में बहुतरे लोग स्थार्थ में ही डूबे रहते हैं उसी कलि युगी समाज में उसे वर्ताव करना है। क्योंकि मनुष्य का ज्ञान कितना ही पूर्ण क्यों न हो गया हो और उसकी बुद्धि साम्यावस्था में कितनी ही क्यों न पहुंच गई
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