पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४१४

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सिद्धावस्था और व्यवहार । हो, तो भी उसे ऐसे ही लोगों के साथ बर्ताव करना है जो काम-क्रोध आदि के चकर में पड़े हुए हैं और जिनकी बुद्धि अशुद्ध है। अतएव इन लोगों के साथ व्यवहार करते समय, यदि वह अहिंसा, दया, शान्ति, और क्षमा आदि नित्य एवं परमावधि के सद्गुणों को ही सब प्रकार से सर्वथा स्वीकार करे तो उसका निर्वाह न होगा * अर्थात् जहाँ सभी स्थितप्रज्ञ हैं, उस समाज की बढ़ी-चढ़ी हुई नीति और धर्म- अधर्म से उस समाज के धर्म-अधर्म कुछ न कुछ भित्र रहेंगे ही कि जिसमें लोभी पुरुषों का ही भारी जत्या होगा; वर्ना साधु पुरुष को यह जगत् छोड़ देना पड़ेगा और सर्वत्र दुष्टों का ही बोलवाला हो जावेगा । इसका अर्थ यह नहीं है कि साधु पुरुष को अपनी समता-बुद्धि छोड़ देनी चाहिये, फिर भी, समता-समता में भी भेद है । गीता में कहा है कि “घालणे गवि हस्तिनि" (गी. ५. १८) बाह्मण, गाय और हाथी में परित्तों की समबुद्धि होती है, इसलिये यदि कोई गाय के लिये लाया हुआ चारा ब्रामण को, और ब्राह्मण के लिये बनाई गई रसोई गाय को खिलाने लगे, तो क्या उसे परिडत कहेंगे? संन्यास मार्गवाले इस प्रश्न का महत्व भले न मानें, पर कर्मयोगशास्त्र की बात ऐसी नहीं है। दूसरे प्रकरण के विवेचन से पाठक जान गये होंगे कि सत्युगी समाज के पूर्णावस्थावाले धर्म-अधर्म के स्वरूप पर ध्यान रख कर, स्वार्थ-परायण लोगों के समाज में स्थितप्रज्ञ यह निश्चय करके बर्तता है, कि देश-काल के अनुसार उसमें कौन कौन से फर्क कर देना चाहिये, और कर्मयोगशास्त्र का यही तो विकट प्रश्न है। साधु पुरुष स्वार्थ परायण लोगों पर नाराज़ नहीं होते अथवा उनकी लोभ-बुद्धि देख करके वे अपने मन की समता को डिगने नहीं देते, किन्तु इन्हीं लोगों के कल्याण के लिये वे अपने उद्योग केवल कर्तव्य समझ कर वैराग्य से जारी रखते हैं। इसी तत्व को मन में ला कर श्रीसमर्थ

    • In the second place, ideal oonduot such as othical

theory is concerned with, is not possible for the idend man in the midst of mou otherwiso constitutod. An absolutely just or perfectly sympathetic person, could not live and act according to his nature in a tribo of cannibals. Among people who are treacherous nod utterly without soruple, antire truthfulness and oponness must bring min. " Spencor's Data of Llhics, Chap. XV. p. 280. स्पेन्सर ने इसे Relative Ethics कहा है; और वह कहता है कि “On the efolution-hypothesis, the two ( absolute and Relative Ethios ) prosapposo 020 anothor; and only when-thoy 00-oxist, can there exist that ideal conduct which Absolute Ethics has it formulate, and whilok Rolativo Ethics kas to take as the stand- ard by which to estiinato divergencies from right, or degrees of wrong."