भक्तिमार्ग। ४०७ श्रद्धा ही तो है न, कि वह कम आगे भी वैसा ही नित्य चलता रहेगा । यद्यपि हम उसको एक बहुत बड़ा प्रतिष्टित नाम “अनुमान " दे दिया करते हैं तो भी यह ध्यान में रखना चाहिये, कि यह अनुमान पुन्द्विगम्य कार्यकारगात्मक नहीं है, किन्तु उसका मूलस्वरूम श्रद्वात्मक ही है । मन्नू को शार मोठी लगती है, इसलिये छन्नू को भी यह मीठी लगेगी-यह जो निश्चय हम लोग किया करते हैं यह भी वस्तुतः इसी नमूने का है क्योंकि जब कोई कहता है कि मुझेशकर मीठी लगती है. तब इस ज्ञान का अनुभव उसको बुद्धि को प्रत्यक्ष रूप से होता है सही, परंतु इससे भी यागे बढ़ कर जय हम यह कहते हैं कि शफार सय मनुष्यों को मीठी लगती है, तब बुद्धि को श्रद्धा की सहायता दिये बिना काम नहीं चल सकता । रेखागणित या भूमितिशाख का सिद्धान्त है, कि ऐसी दोरेखाएं हो सकती हैं जो चाहे जितनी बढ़ाई जावें तो भी भापस में नहीं मिलती, कहना नहीं होगा कि इस ताव को अपने ध्यान में लाने के लिये हमको अपने प्रत्यक्ष अनुभव के भी परे केवन श्रद्धा ही की सहायता से चज्ञना पड़ता है । इसके लिया यह भी ध्यान में रखना चाहिये, कि संसार के सय व्यवहार श्रद्धा, प्रेम आदि नैसर्गिक मनोवृत्तियों से ही चलते हैं। इन वृत्तियों को रोकने के सिवा घुदि दूसरा कोई कार्य नहीं करती, और जब बुद्धि किसी बात की भलाई या पुराई का निश्चय कर लेती है। तय आगे उस निश्चय को अमल में लाने का काम मन के द्वारा अर्थात् मनोवत्ति के द्वारा भी हुआ करता है । इस बात की चर्चा पहलं क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविचार में हो चुकी है। सारांश यह है कि शुद्धिगम्य ज्ञान की पूर्ति होने के लिये और आगे श्राचरण तथा कृति में उसकी फलद्रूपता होने के लिये इस ज्ञान को हमेशा धन्दा, दया, पात्सल्य, कर्तव्य-प्रेम इत्यादि नैसर्गिक मनोवृत्तियों की आवश्यकता होती है, और जो ज्ञान इन मनोवृत्तियों को शुद्ध तथा जागृत नहीं करता, और जिस ज्ञान को उनकी सहायता अपेक्षित नहीं होती; उसे सूखा, कोरा, कर्कश, अधूरा, वांझ या कचा ज्ञान समझना चाहिये । जैसे बिना बारूद के केवल गोली से बंदूक नहीं चलती, वैसे ही प्रेम, श्रद्धा आदि मनोवृत्तियों की सहायता के बिना केवल बुद्धिगम्य ज्ञान किसी को तार नहीं सकता । यह सिद्धान्त हमारे प्राचीन ऋपियों को भली भाँति मालूम था । उदाहरण के लिये छांदोग्योपनिपद में वर्णित यह कथा लीजिये (छां. ६. १२):- एक दिन श्वेतकेतु के पिता ने यह सिद्ध कर दिखाने के लिये कि अध्यक्त और सूक्ष्म परमम ही सय एश्य जगत् का मूल कारण है, श्वेतकेतु से कहा कि बरगद का एक फल ले प्रायो और देखो कि उसके भीतर क्या है । वेतकेतु ने वैसा ही किया, उन फल को तोड़ कर देखा, और कहा " इसके भीतर छोटे छोटे बहुत से वोज या दाने हैं।" उसके पिता ने फिर कहा कि उन वीजों में से एक बीज ले लो, उसे तोड़ कर देखो और बतलाओ कि उस के भीतर पया है? श्वेतकेतु ने एक योज ले लिया, उसे तोड़ कर देखा और कहा कि इसके भीतर कुछ नहीं है। तय पिता ने कहा " अरे! यह जो तुम 'कुछ नहीं'
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