गीताध्याय-संगति। ४६६ उतने भर के लिये पातञ्जलयोग के यम-नियस प्रासन-प्रादि साधनों का उपयोग कर लेना चाहिये । सारांश, वैदिक धर्म में मोज-प्राप्ति के जो जो साधन बतलाये गये हैं उन सभी का कुछ न कुछ वर्णन, कर्मयोग का सांगोपांग विवेचन करने के समय, गीता में प्रसंगानुसार करना पड़ा है। यदि इन सत्र वर्णनों को स्वतंत्र कहा जाय, तो विसंगति उत्पन होकर ऐसा भास होता है कि गीता के सिद्धान्त परम्पर- विरोधी है और, यह भास भिन्न भिन्न साम्प्रदायिक टीकाओं से तो और भी अधिक दृढ़ हो जाता है। परन्तु जैसा हमने ऊपर कहा है उसके अनुसार यदि यह सिद्धान्त किया जाय, कि प्रमज्ञान और भक्ति का मेल करके अन्त में उसके द्वारा कर्मयोग का समर्थन करना ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है तो ये संब विरोध लुल हो जाते हैं। और, गीता में जिस अलौकिक चातुर्य से पूर्ण व्यापक दृष्टि को स्वीकार कर तत्वज्ञान के साथ भक्ति तथा कर्मयोग का यवोचित मेल कर दिया गया है, उसको देख दाँतों तले अंगुली दवाकर रह जाना पड़ता है ! गंगा में कितनी ही नदियों क्यों न था मिले. पान्नु इससे उसका मूल स्वरूप नहीं बदलता; बस, टीक यही हाल गीता का भी है । उसमें सब कुछ भले ही हो; परन्तु उसका मुख्य प्रतिपाय विषय तो कर्मयोग ही है। यद्यपि इस प्रकार कर्मयोग ही मुड्य विषय है. तथापि कर्म के साथ ही साथ मोक्ष-धर्म के मर्म का भी उसमें भली-भांति निरूपण किया गया है इसलिये कार्य अकार्य का निर्णय काने के हेतु बतलाया गया यह गंताधम ही-सहि धर्मः सुपर्यासा ग्रहणः पदवेदने (ममा. अध. १६. १२)-नय की प्राप्ति करा देने के लिये भी पूरी समर्थ है। और, भगवान् ने अर्जुन से अनुगीता के प्रारम्भ में स्पष्ट रीति से कह दिया है, कि इस मार्ग से चलनेय ले को मोक्ष-प्राति के लिये किसी भी अन्य अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। हम जानते हैं कि संन्याच मार्ग के उन लोगों को इमारा कथन रोचक प्रतीत न होगा जो यह प्रतिपादन किया करत है. कि विना सरव्यावहारिक कौ का त्याग किये मोक्ष की प्राति हो नहीं सकती. परन्तु इसके लिये कोई इलाज नहीं है। गीता- ग्रन्थ न तो संन्यास मार्ग का है और न निवृत्ति-प्रधान किसी दूसरे ही पंथ का। गीताशाब की प्रवृत्ति तो इसी लिये है, कि वह प्रमशाग को रष्टि से ठीक ठीक युक्ति- लहित इस प्रश्न का उत्तर दे, कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी फर्मों का संन्यास करना अनुचित क्यों है ? इसलिये मंन्यास-मान के अनुयायियों को चाहिये, कि ये गीता को भी संन्याल देने की झंझट में न पड़, 'संन्यासमार्ग-प्रतिपारक' जो अन्य वैदिक ग्रन्थ है उन्हीं से संतुष्ट रहें। अथवा, गीता में संन्यास-मार्ग को भी भगवान् ने जिस नि:भिमानशुद्धि से निःश्रेयस्कर कहा है, उसी सम-बुद्धि से सांख्य-मागंवाली को भी यह कहना चाहिये कि "परमेश्वर का हेतु यह है कि ससार चलता रहे। और, जब कि इसीलिये वह बार-बार अवतार धारण करता है, तबज्ञान-प्राप्ति के अनन्तर निष्काम-बुद्धि से ज्यावहारिक कर्मों को करते रहने के जिस मार्ग का उपदेश भगवान् ने गीता में दिया है वही मार्ग कलिकाल में उपयुक्त है"-और ऐसा कहना ही उनके लिए सर्वोत्तम पक्ष है।
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